Friday, June 27, 2014

क़ुवैत की घटना है। एक बार कस्टम डिपार्टमेंट (पार्सल सेक्शन) गया, अफसर को कार्ड दिखाया कि मेरा पार्सल आया है, उसने कहा इन्तेज़ार करो। वो काउंटर के एक तरफ था और मैं दूसरी तरफ, संयोग से उसकी पार्सल खोलने वाली कैंची मेरी तरफ गिर गई। उसने मुझसे कहा रफीक ना वअलनबी अलमक़्स यानी रफीक कैंची पकड़ा दो। अरबों का ये नियम है कि यूरोपीय देशों के निवासी को ''सैयद'' कहेंगे, अरबी चाहे ईसाई हो या यहूदी उसे ''आख़'' यानी भाई कहेंगे और इंडियन, पाकिस्तानी, बांग्लादेशी, बर्मा वालों आदि को रफीक कहकर सम्बोधित करते हैं। वो हमें पाकिस्तानी कहने के लिए भी तैयार नहीं, वो कहते हैं कि तुम तो रोज़ रोज़ अपने वतन (हिंद) को टुकड़े करो तो हमारे लिए ज़रूरी नहीं कि तुम्हें नए नाम से पुकारें। बस तुम हिन्दी हो और हिंदी ही रहोगे। और हम तुम्हें इसी नाम से पुकारेंगे। गौरतलब है कि शब्द रफीक में एक छिपी हुई भारी गाली भी है, जिसे आम आदमी नहीं जान सकता। और हैरानी की बात ये है कि बांग्लादेश को बन्ग़ला देश कहने में ये लोग कोई मुश्किल महसूस नहीं करते। 

मैंने कहा ऐब अलैक तक़ल्ली रफ़ीक़ माताअर्रफ़ अना अखवका मिन मवालीद लफायतल मौत- बुराई तुम्हारी तरफ रुख़ करे मुझे रफीक कहते हो जबकि मैं जन्म से लेकर मृत्यु तक तुम्हारा भाई हूँ। अपने भाई को नहीं पहचानते?



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