Friday, March 28, 2014

Fatwas Are Opinions, Not Laws फ़तवा क़ानून नहीं, राय है

मौलाना वहीदुद्दीन खान
14 मार्च, 2014








फोटो: शैलेंद्र पांडे
25 फरवरी को सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया कि मुफ़्तियों के द्वारा दिये गए फतवे और कड़े आदेशों को कोई कानूनी मंज़ूरी हासिल नहीं है। दो सदस्यीय बेंच ने ये फैसला दिया है कि, "जिस चीज़ को कानूनी मंज़ूरी हासिल न हो उसका किसी को भी संज्ञान लेने की ज़रूरत नहीं है। मुफ्ती किसी भी मुद्दे को उठा सकते हैं और उस पर फतवा दे सकते हैं। लेकिन ये किसी भी मुद्दे पर किसी आम आदमी की राय के समान ही होगा।" अदालत का ये फैसला शरीयत के अनुसार है।
शरीयत फतवा और क़ज़ा (आदेश, फैसला) के बीच अंतर करती है। फतवा निजी मामले पर किसी व्यक्ति द्वारा मुफ्ती से ली गयी सलाह पर मुफ्ती द्वारा दी गयी राय होती है। फतवा का शाब्दिक अर्थ राय है और फतवा कानूनी रूप से बाध्यकारी नहीं है। ये केवल सम्बंधित व्यक्ति पर लागू होता है और केवल वही इसे स्वीकार करने या अस्वीकार करने का फैसाल कर सकता है। दूसरी तरफ क़ज़ा का मतलब न्यायिक फैसला है। किसी मुफ्ती को क़ज़ा (निर्णय) जारी करने की इजाज़त नहीं है, बल्कि ये सरकार द्वारा अधिकृत अदालत का विशेषाधिकार है और जो सभी पर बाध्यकारी होता है। 
 

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