Tuesday, October 15, 2013

The Silent Majority Is Dead खामोश बहुसंख्यक मुर्दा हैं


याक़ूब ख़ान बंगश
23 सितंबर, 2013
पाकिस्तान में जब भी कोई आतंकवादी हमला होता है तो हर तरफ से नियमित निंदा का दौर शुरू हो जाता है। इसके बाद लोग हमेशा की तरह अपने व्यवसाय में लग जाते हैं, जब तक कि इसी तरह का एक और हमला होता है और इसके बाद फिर वही फिल्म दोहराई जाती है। ऐसा लगता है कि सब कुछ होता है, फिर भी कुछ नहीं होता। लोग इन हमलों की निंदा करते हैं, लेकिन फिर भी आतंकवादी बार बार हमारे बीच पाये जाते हैं। लोग मरने और घायल होने वालों को लेकर दुःखी होते हैं लेकिन इसके बाद जल्द ही वो इन सब बातों को भूल जाते हैं। लोगों को जब हमलों के बारे में पता चलता है तो वो उदास होते हैं, लेकिन बिरयानी के अगले दौर में हम ये सब भूल जाते हैं।
'विशेषज्ञों' से जब भी आतंकवाद के व्यापकता और पाकिस्तान में इसकी घातक विचारधारा के बारे में पूछा जाता है तो वो अक्सर ये कहते हैं, "लेकिन खामोश रहने वाले बहुसंख्यक उन्हें खारिज करते हैं"। लेकिन वास्तव में खबर ये है कि ये 'खामोश बहुसंख्यक' मुर्दा हो चुके है। एक लंबे समय से 'खामोश बहुसंख्यक' ज़िन्दा लोगों के अलावा मृत लोगों के लिए प्रयोग किया जाता रहा है। 1970 के दशक में वाटरगेट स्कैंडल के दौरान ही निक्सन ने 'खामोश बहुसंख्यकों' का हवाला दिया था जिसने उसका समर्थन किया था और जो वास्तव में मुर्दा ही थे। हमारी आबादी भी मुर्दा है जो आतंकवाद और इसकी विचारधारा का विरोध करती है। हमारी सामूहिक उदासीनता हमारे शब्दों और कार्रवाईयों से अधिक प्रभावी है। पिछले दशक या उससे पहले की बात तो जाने दीजिए इस अभिशाप ने हाल के महीनों में हमारी सेना के कई जवानों और नागरिकों की जान ले ली है,  और हम अब भी बातचीत करना चाहते हैं। हमें ये सोचने से पहले मुर्दा होना चाहिए।
इस अभिशाप के और मज़बूत होने की एक वजह ये है और शायद ये हमारा


 

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