Monday, January 13, 2014

Weapons of Boycott बहिष्कार का हथियार




अनिल चमड़िया
जनसत्ता, 9 जनवरी, 2014
उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर और शामली जिलों में शिविरों में रहे दंगा-पीड़ितों के बारे में यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता कि वे लोग भविष्य में कहां जाएंगे। देश भर में पहले से ही एक प्रक्रिया चल रही है कि हिंदुओं के संख्याबल वाले इलाके में रहने वाले मुसलमान वैसी जगह पर जाना खुद की सुरक्षा के लिए बेहतर समझते हैं, जहां गैर-हिंदू और खासतौर से मुसलिम आबादी रहती है। कई सर्वेक्षणों में यह बात भी साबित हुई है कि हिंदू संख्याबल वाले इलाके में मुसलमानों को किराए पर घर मिलना लगभग असंभव-सा होता है। जब भागलपुर में मुसलिम-विरोधी दंगे हुए थे तब वहां कई नए मुसलिम नाम वाले गांव या टोले बन गए। एक शोधार्थी नीरज कुमार ने इस तरह की जगहों की एक लंबी सूची तैयार की है।
गुजरात में जहां हमले-दर-हमले हुए, वहां भी मुसलिम इलाकों में सुरक्षा की गरज से एक बड़ी आबादी को खिंच आई। अमदाबाद में तो स्थानीय निकाय को साबरमती रिवरफ्रंट परियोजना के तहत बसाने की कार्रवाई के दौरान हिंदू और मुसलमान, दोनों समुदायों के लगभग आठ हजार परिवारों ने कहा कि उन्हें एक साथ नहीं रहना है। पूरे देश में सामाजिक विभाजन की जो सांप्रदायिक प्रक्रिया चल रही है, उसमें पहले के गांवों और मुहल्लों का एक नया विस्तार दिखाई दे रहा है। गांव में अछूत या हरिजन टोला है। जिन्हें आज की भाषा में दलित कहा जाता है उन्हें ‘मुख्यधारा’ से बहिष्कृत रखा जाता था।
 
 

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