Munshi Nawal Kishor: Patron of Sciences and Art of the East पूर्वी ज्ञान और कला के संरक्षक: मुंशी नवल किशोर
मोहम्मद वसी सिद्दीकी
8 जनवरी, 2014
कलम के ज़रिए रोटी कमाने की रस्म पूरी दुनिया में है और बहुत पुरानी है। प्रिंटिंग प्रेस के आविष्कार के पहले कलम के ज़रिए रोटी पैदा करने के लिए लेखक को संरक्षक की ज़रूरत थी (जैसे शायर को) या फिर सार्वजनिक सहायता की (जैसे दास्तान गो को) लेकिन जब प्रिंटिंग प्रेस आ गया तो संरक्षकों का दौर खत्म होने लगा और यूरोप में तीन सौ वर्ष की अवधि में संरक्षकों का संगठन बिल्कुल समाप्त हो गया। भारत में प्रिंटिंग प्रेस बहुत देर में आया। प्रेस की शुरुआत और संरक्षकों का खत्म होना कमोबेश एक ही साथ अमल में आया। संरक्षक इसलिए खत्म हुए कि अंग्रेजों की लाई हुई नई सभ्यता ने संरक्षकों की वित्तीय स्थिति को बहुत कम कर दिया और ये बहुत तेजी से हुआ। पश्चिम में ये हुआ कि प्रेस (यानी प्रकाशक, अखबार) ने संरक्षक की जगह ले ली लेकिन हिंदुस्तान में इसका उलटा हुआ। यहां प्रेस ने लेखक को आय का ज़रिया बनाया लेकिन अपनी ही शर्तों पर यानि प्रेस के मालिक या किताब के प्रकाशक ने लेखक को कुछ मुआवज़ा न देने की रस्म बना ली।
तथ्य बताते हैं कि मुंशी नवल किशोर के ज़माने में किताबत किये गये पत्थर सुरक्षित रखे जाते थे और उन्हें किताब के अगले प्रकाशनों के लिए इस्तेमाल किया जाता था अगर ये सही है तो पत्थरों को सुरक्षित करने और सुरक्षित रखने में बहुत कौशल और बहुत ज़्यादा जगह की ज़रूरत होती होगी। फिर ये भी है कि उन्हें क्रम से इस तरह जमा रखना कि आसानी और क्रम से फिर निकाला जा सके। ये बहुत बड़ा और कुशलता का काम रहा होगा। इन पत्थरों को दोबारा सही जगह पर वापस रखना बेशक बड़ी प्रशासनिक कुशलता का नतीजा था। नवल किशोर प्रेस की एक बहुत बड़ी उपलब्धि दास्तान अमीर हमज़ा की छियालीस जिल्दों का प्रकाशन है। ये कहा जा सकता है कि दूसरे ग्रंथ जो प्रेस से प्रकाशित होकर संरक्षित हुए उनमें से ज्यादातर हैं जिन्हें कोई न कोई संस्था यहाँ से या ईरान या मिस्र व अरब से प्रकाशित कर ही देता लेकिन दास्तान अमीर हमज़ा ऐसा ग्रंथ है जिसे नवल किशोर के सिवा कोई भी प्रकाशित नहीं कर सकता था। इसलिए अगर नवल किशोर प्रेस दास्तान अमीर हमज़ा को प्रकाशित न करता तो ये हमेशा हमेशा के लिए विलुप्त हो जाता और हम ऐसी चीज़ से वंचित रह जाते जिसे दुनिया के काल्पनिक साहित्य के महानतम उपलब्धियों में गिना जाना चाहिए। इसमें कोई शक नहीं कि दुनिया में कम ऐसा हुआ होगा कि एक ही संस्थान ने कई संस्कृतियों और कई साहित्यिक और ज्ञान परंपराओं की ऐसी व्यापक सेवा की
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