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15 Sep 2011, NewAgeIslam.Com | |
मिली जुली संस्कृतिः परम्परा और हक़ीक़त भाग-1 | |
प्रोफेसर अली अहमद फातमी (उर्दू से हिंदी अनुवाद- समीउर रहमान, न्यु एज इस्लाम डाट काम) |
उर्दू ज़बानो अदब के हवाले से मिली जुली संस्कृति पर बात करना ऐसा ही है जैसे शीरनी मेंशक्कर तलाश करना, इसलिए कि उर्दू और मिली जुली संस्कृति एक दूसरे के लिए आवश्यकहैं। एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। उर्दू के शुरुआती दौर के शायरों के कलाम पर ग़ौर कियाजाये, तो उनमें से ज़्यादातर के कलाम दोहे की शक्ल में मिलता है। सौदा, हातिम, इंशा, नज़ीरवगैरह के यहाँ दोहे मिलते हैं, और बिल्कुल हिंदुस्तानी व ज़मीनी संस्कृति में रचे हुए। वलीदक्कनी से पहले उर्दू का ज़्यादातर शायरी में छंद और दोहे ही नज़र आते हैं। वली के आने केबाद इसमें ईरानी कल्चर के असरात नज़र आने लगते हैं लेकिन इसका ये मतलब हरगिज़नहीं है कि इसमें स्थानीय और मिला जुला नहीं रह गया। ऐसा मुमकिन ही न था कि बैत कुछभी हो शेरो अदब स्थानीयता से कभी अलग नहीं हो पाते हैं। ये फितरी तौर पर मुमकिन ही नहीं और न ही फिक्री तौरपर कि मुक़ामियत (स्थानीयता) से ही आफाक़ियत का सफर तय करता है। ये हक़ीक़त है कि जो जहाँ का है अगर वहींका नहीं है तो फिर कहीं का नहीं है। --प्रोफेसर अली अहमद फातमी (उर्दू से हिंदी अनुवाद- समीउर रहमान, न्यु एजइस्लाम डाट काम |
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