Saturday, February 29, 2020

Indian Muslim Clergy to Counter ISIS Propaganda आइएसआइएस के प्रोपेगेंडे की रद्द में भारतीय उलेमा की ओर से जिहादिज्म के आम धार्मिक बयान की बजाए प्रभावी शरई जवाबी बयानिये अति आवश्यक




सुलतान शाहीन, फाउन्डिंग एडिटर, न्यू एज इस्लाम
19 नवंबर २०१९
आउट लुक इण्डिया डॉट कॉम की एक रिपोर्ट में आधिकारिक स्रोत के हवाले से बताया गया है कि भारत ने मुस्लिम युवाओं को आइएस आइएस के जिहादी सिद्धांत के जाल में फसने से रोकने के लिए इंटरनेट पर आधारित “धार्मिक रहनुमाओं का अनाधिकारिक चैनल” बनाना प्रारम्भ किया है। इसमें गृह मंत्रालय मामलों (एम एच ए ) में तैनात एक वरिष्ठ आई पी एस अफसर के हवाले से कहा गया है कि “इस (आइएस आइएस ऑन लाइन प्रोपेगेंडा) का मुकाबला उसी अंदाज़ से करने की आवश्यकता है “और यह केवल मुस्लिम युवाओं की गिरफ्तारी से इस खतरे को हल नहीं किया जा सकता। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि “मुस्लिम उलेमा को आइएस आइएस के बयानिये से निमटने के लिए यू ट्यूब चैनल ब्रोडकास्ट, सोशल मिडिया और वेबसाइटों पर अकाउंट बनाने का प्रशिक्षण दिया जाएगा”।
यह एक सराहनीय पहल है और इसका स्वागत करने की आवश्यकता है। लेकिन इसमें कुछ गंभीर चिंतन की भी आवश्यकता है। उलेमा को प्रोपेगेंडा वीडियो बनाने की तकनीक सिखाई जा सकती है। लेकिन क्या यह मवाद के मूल समस्या को हल किये बिना प्रभावी होगा? जैसे कि उलेमा का बयान या जवाबी बयानिया क्या होगा?
आउट लुक इंडिया की रिपोर्ट में एक इशारा दिया गया है कि “उलेमा से इस बात का अनुरोध किया गया है कि वह आइएस आइएस के सरगना अबू बकर अल बगदादी के माध्यम से महिलाओं और बच्चों पर होने वाले अत्याचार को सामने लाएं। “लेकिन क्या हमें इस बात की आवश्यकता है कि उलेमा इस तरह की मुहिम में भाग लें? इस मुहिम को तो आम चैनल अधिक प्रभावी तरीके से अंजाम दे सकते हैं। कोई भी प्रिंट मिडिया पत्रकार या टीवी कमेंटेटर यह कार्य अंजाम दे सकता है। निश्चित रूप से हमारा मीडिया इस काम को वर्षों से प्रभावी रूप में अंजाम दे रहा है।
हमें उलेमा की आवश्यकता केवल इसलिए है कि वह जिहादी विचारधारा का खुल कर रद्द करें और केवल इसलिए नहीं कि वह आइएस आइएस के अत्याचारों, अपहरण, यौन गुलामी, मुसलमानों और गैर मुस्लिमों पर हमलों आदि की निंदा करें। कोई भी बुद्धि रखने वाला व्यक्ति इस अत्याचारों की निंदा कर सकता है और उतना ही प्रभावी सिद्ध हो सकता है।
आवश्यकता इस बात की है कि उलेमा धार्मिक हिंसा और उत्कृष्टतावाद की विशेष जिहादी विचारधारा जो कि मूल रूप से सभी वर्गों के विचार के इज्माअ पर कायम है, पहले इसका रद्द करें। यह भी आवश्यक है कि यह काम अमन व सलामती और सहिष्णुता पर आधारित सिद्धांतों की रौशनी में हो। इस उद्देश्य में सफलता प्राप्त करने के लिए उलेमा को एक नए विचार को बढ़ावा देना होगा जो कि मदरसों में पढ़ाई जाने वाली पारम्परिक विचारधारा से भिन्न हो, क्योंकि यह दृष्टिकोण बहोत पुराने हैं जिन्हें जिहादी दृष्टिकोण को मानने वाले अपने संदेश को सार्वजनिक करने के लिए प्रयोग करते हैं।
यह बात बहोत महत्वपूर्ण है कि जिहादी दुनिया भर के हज़ारों युवाओं के दिमाग पर अपना प्रभुत्व स्थापित करने में सफल क्यों रहे हैं। तो इसका कारण यह है कि जिहादी कोई नई बात नहीं कर रहे हैं, यह तो केवल उन्हीं चीजों को व्यवहारिक रूप प्रदान कर रहे हैं जिनका प्रचार प्रसार उलेमा करते आ रहे हैं। जिहादी दृष्टिकोण तो वही पारम्परिक इस्लामी दृष्टिकोण है जो दोसरे सभी धर्मों के अकीदों पर वर्चस्व स्थापित करने और हर उस चीज को मिटाने का शौक़ीन है जिसे यह बड़ा अपराध मानती है, ऐसे अपराध जिनका प्रतिबद्ध मानवता कर सकती है, विशेषतः शिर्क, बुत परस्ती, कुफ्र और मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की नबूवत का इनकार। इमाम गज्ज़ाली (इग्यारहवीं से बारहवीं शताब्दी) से ले कर इमाम इब्ने तैमिया (१३ वीं १४ वीं शताब्दी), मुजद्दिद अल्फ सानी शैख़ सरहिन्दी (१६ वीं १७ वीं शताब्दी), शाह वलीउल्लाह मुहद्दिस देहलवी (१८ वीं शताब्दी) तक के इस्लाम के उत्कृष्ट उलेमा ने राजनीतिक इस्लाम का एक दृष्टिकोण पेश किया है जिसे अंततः बीसवीं शताब्दी के मौलाना सैयद अबुल आला मौदूदी, हसन अल बन्ना और सैयद क़ुतुब ने एक ख़ास किस्म की शकल दी। हालांकि २१ वीं शताब्दी के जिहादी दृष्टिकोण के हामियों ने इस पारम्परिक दृष्टिकोण के कुछ भागों पर बहुत इफ़रात व तफरीत से काम लिया हो मगर वह पारम्परिक दृष्टिकोणों से कुछ अधिक भिन्न बात नहीं कर रहे हैं।
जिहादी दृष्टिकोण कोई ऐसा दृष्टिकोण नहीं जो आसमान से अचानक टपक पड़ा हो। यह दृष्टिकोण कोई उसामा बिन लादेन या तथाकथित खलीफा अबू बकर अल बगदादी की पैदावार नहीं। जिहादियों का यह दृष्टिकोण कि दुनिया पर वर्चस्व स्थापित किया जाए और हर उस व्यक्ति से जंग लड़ी जाए जो दावत ए इस्लाम को स्वीकार नहीं करते असल में वही दृष्टिकोण है जिसकी शिक्षा हमारे सभी मदरसों में दी जाती है। जिहाद की यह परिभाषा कि जो लोग अल्लाह की वहदानियत और मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की नबूवत पर ईमान नहीं रखते उनसे क़िताल किया जाए यह वही परिभाषा है जो सुन्नी फिकह के सभी धर्मों व वर्गों की किताबों में मौजूद है, चाहे वह हनफी हो, मालकी हो, शाफई या हम्बली हो। यहाँ तक कि राजनीतिक मामलों में शिया वर्ग के दृष्टिकोण भी अहले सुन्नत से कुछ अधिक भिन्न नहीं, बल्कि शिया का भी यही दृष्टिकोण है कि दुनिया भर में इस्लाम का गलबा और सभी गैर मुस्लिमों पर सत्ता स्थापित किया जाए।
इस स्थिति को ठीक से समझा जा सकता है अगर इसके साथ साथ हम यह भी देखें कि आखिर किस तरह मौलाना वहीदुद्दीन खान जैसे अमन व रवादारी के प्रचारक को भी राजनीतिक इस्लाम के प्रभुत्व का गीत गाना पड़ता है, हालांकि वह मौलाना मौदूदी की गलतियों की भी निशानदही करते हैं। वह फरमाते हैं कि “हज़ारों सालों पर आधारित नबियों के संघर्ष ने यह साबित कर दिया था कि कोई भी अमली तहरीक जिसका दायराकार फिकरी या मिशनरी मैदान तक महदूद हो, वह लोगों को शिर्क व कुफ्र की गिरफ्त से आज़ाद करने के लिए काफी नहीं था। यही कारण था कि अल्लाह पाक ने नबी मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को दाई के साथ साथ शिर्किया और कुफ्रिया अकीदों को मिटाने वाला माही भी बना कर भेजा। अल्लाह पाक ने उन्हें यह फरीज़ा सौंपा कि वह ना केवल दुनिया को यह बताएं कि अवहाम परस्ती पर आधारित शिर्किया व कुफ्रिया अकीदों की निर्भरता अंधकार व गुमराही पर है बल्कि उन्हें आवश्यकता पड़ने पर फौजी कार्यवाही करने की भी जिम्मेदारी दी ताकि इस कुफ्र व शिर्क के निज़ाम को हमेशा के लिए जड़ से मिटाया जा सके। “नक़ल किया गया” इस्लाम दौर ए जदीद का ख़ालिक, मौलाना वहीदुद्दीन खान” प्रकाशन संवत २००३)।
अगर वास्तव में ऐसा ही है तो यहाँ तक कि वह लोग जो जिहादिज्म के कट्टर विरोधी हैं उनके अनुसार आखिर जिहादियों को क्यों यह दावा नहीं करना चाहिए कि वह दुनिया की सफह हस्ती से कुफ्र व शिर्क जैसे झूटे अकीदों के खात्मे की कोशिश कर के केवल नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के मिशन को पूरा कर रहे हैं।
दुनिया से कुफ्र व शिर्क के अंत की सूचि में उन्होंने सूफी मज़ारों, मंदिरों और गिरजा घरों पर जानलेवा हमले के मिशन को भी शामिल रखा है। सलफी वहाबी दृष्टिकोण जिनकी ओर से मौजूदा दौर के अक्सर जिहादी अपनी निस्बत जोड़ते हैं उनके मुताबिक़ सूफी मज़ार भी शिर्क को बढ़ावा देने में प्रयासरत हैं।
यहाँ कुछ ऐसे शदीद मतभेद हैं जो ना केवल जिहादी दृष्टिकोण और पारम्परिक दृष्टिकोण के बीच हैं बल्कि स्वयं जिहादी संगठनों के बीच भी ऐसे मतभेद मौजूद हैं। जैसे आइएस आइएस का अधिकतर ज़ोर, हदीस में उल्लेखित आखरी ज़माने के हादसों से संबंधित नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की पेशनगोई पर होता है और यह बात युवाओं को खूब भाति है। दोसरी ओर हम देखते हैं कि अगर अलकायदा ने इसे इतनी अहमियत नहीं दी हो लेकिन इसके बावजूद कम से कम उसके शुरा के दो मेम्बरों के संबंध से कहा जाता है कि वह भी इस्लामी स्किटोलौजी पर आधारित आखरी ज़माने के हादसों के संबंध में भविष्यवानियों पर विश्वास रखते थे।
पारम्परिक दीन के उलेमा के बीच भी इस हदीसों पर कोई विवाद नहीं जिन्हें जिहादी अपने इस दृष्टिकोण को साबित करने के लिए साबित करते हैं कि विभिन्न भविष्यवाणियाँ सच साबित हो चुकी हैं। इस तरह उनके नज़दीक दुनिया ख़त्म होने में केवल कुछ समय ही रह गया हो, याजूज माजूज का जुहूर भी होने वाला हो, इमाम मेहदी का जुहूर, दज्जाल का निकलना, और फिर मलाहीम ए कुबरा से पहले हज़रात ईसा अलैहिस्सलाम की आमद और कयामत का आना निकट हो।
मैंने उलेमा में कोई भी ऐसा गिरोह नहीं पाया जो हदीस की किताबों में उल्लेखनीय हदीसों की सेहत पर सवाल करें, हालांकि वह इन हदीसों के संबंध कुछ इस्तिलाह और तौजीह की भिन्न व्याख्या करते हैं।
गौरतलब यह है कि गजवा ए हिन्द की रिवायत भी इसी भविष्यवाणी वाली हदीस से जोड़ी जाती है और पाकिस्तान के धार्मिक हलकों में तो गजवा ए हिन्द के फरीज़े को अंजाम देने की कायदे से मुहिम भी चलाई जाती है।
गजवा ए हिन्द इस स्किटोलौजी पर आधारित दृष्टिकोण की पैदावार है। इसके संबंधसे कहा जाता है कि यह जमीन पर कयामत की निशानियों में से है। पाकिस्तान के प्रसिद्ध उलेमा भी इस विषय पर बार बार लिखते और बोलते रहे हैं ताकि वह पाकिस्तान के दीनी मिज़ाज रखने वालों के मस्तिष्क में यह बात बैठा सकें कि उन पर वाजिब है कि वह गजवा ए हिन्द में शरीक हो कर भारत फतह करें, उस धरती से शिर्क का खात्मा करें और फिर अल्लाह पाक की तरफ से बड़ा अज्र प्राप्त करें।
जिन हदीसों पर गजवा ए हिन्द और दोसरे हज़ारों भविष्यवाणिया आधारित हैं इनकी स्वास्थ्य पर काफी विवाद है। लेकिन उलेमा ए किराम इज्माई तौर पर हदीस को वही की एक शकल करार देते हैं और इसे उतना ही सम्मान के काबिल समझते हैं जितना कि कुरआन। हालांकि लम्बी सनद पर आधारित हदीस के तद्वीन का अमल नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की वफात के तीन शताब्दियों बाद हुआ। इन सनदों को सदियों बाद सहीह करार नहीं दिया जा सकता हालांकि नौवीं शताब्दी के इमाम बुखारी, इमाम मुस्लिम, इब्ने माजा, तिरमिज़ी, इमाम निसाई, अबू दाउद, आदि जैसे मुहद्देसीन ने जमा हदीस का अमल बेहतरीन काविशों के साथ अंजाम दिया हो। मुहद्देसीन ने हदीसों की सनदों को जांचने के लिए सिद्धांत बनाए फिर उनकी बुनियाद पर हदीसों को विभिन्न प्रकारों में विभाजित कर के उन पर सहीह, हसन, जईफ, मौजुअ, मक्लूब, जैसी इस्तिलाहों का इन्तिबाक किया। मुकद्दिमीन मुहद्दीसीन में इमाम बुखारी (८१० से ८७० ई०) का नाम गिना जाता है जिनके संबंध में कहा जाता है कि उन्होंने लगभग छः लाख सामान्य हदीसों में तीन लाख हदीस को जमा किया और केवल दो हज़ार छः सौ दो रिवायतों को अपनी सहीह में शामिल किया।
यहाँ कुछ ऐसे तथ्य भी हैं जो हदीस के मनहज की असल हैसियत को उजागर करती हैं। छः लाख हदीसों का संग्रह था जिसके संबंध से मारफत बात यह है उनमें से चार लाख आठ हज़ार तीन सौ चौबीस हदीसें मौजूआत थीं जिनमें वाजेईन ए हदीस की संख्या छः सौ बीस तक पहुँचती हैं और जिनके नाम भी प्रसिद्ध हैं। (अल ग़दीर, अल अमीनी, जिल्द ५, पृष्ठ २४५)। हदीस गढ़ने वालों में कुछ यह है: इब्ने जुन्दुब, अबू बख्तारी, इब्ने बशीर, अब्दुल्लाह अल अंसारी अल सनदी। एक तो इब्ने औजा हैं जिन्होंने अपनी सज़ा ए मौत से पहले यह माना था कि अकेले उन्होंने चार हज़ार हदीसें गढ़ीं थीं (मिश्कातुल मिस्बाह, फ़जल करीम, जिल्द १, पृष्ठ १७ से २०)
लेकिन इसके बावजूद उलेमा इन हदीसों की सेहत पर कोई शक का इज़हार नहीं करते जो कि आखिर ज़माने का नजरिया पेश करती हैं हालांकि यह रिवायतें हमारे जवानों को बहुत भाति हैं, इसी का परिणाम था कि भारत सहित दुनिया भर से हज़ारों की संख्या में युवा अबुबकर बगदादी की जंगी मशीन का हिस्सा बन गए। वह तो केवल अपनी तरजीहात के अनुसार ही हदीसों की व्याख्या बयान करते हैं।
अल्लाह के नबी की ओर मंसूब भविष्यवाणी का तो यह हाल है कि उनमें अक्सर के संबंध में दावे का इमकान है कि वह किसी भी दौर में सच साबित हो सकती हैं। कुछ रिवायतों के अनुसार, खुद नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को मसीह दज्जाल के फितने का डर था इसी लिए वह दुआ में अल्लाह पाक की पनाह तलब करते थे। वह हमेशा हर उस घर की ओर रवाना होते जिसमें कोई काना (एक आँख वाला) बच्चा पैदा होता और यह भी पता करते कि क्या कोई ऐसी निशानियाँ भी इस बच्चे में हैं जो दज्जाल की आमद की तरफ इशारा करती हों।
इस प्रकार आखरी जमाने के संबंध में जो मुस्लिम दृष्टिकोण है, उसका चौदा सौ से अधिक वर्षों से अब तक प्रतीक्षा है। इसी स्थिति में बगदादी का जुहूर हुआ जिसनें इसी प्रकार का प्रमाणिक तर्क बनाया कि आखरी ज़माना करीब है क्योंकि मध्य पूर्व और मध्य एशिया में जो जंगें चल रही हैं असल में चल रही हैं असल में यह वही हैं जिनके संबंध में अल्लाह के नबी ने भविष्यवाणी की है और यह कि अब मसीह दज्जाल और इमाम मेहदी का जुहूर होने ही वाला है। हम देखते हैं कि बहुत सारे मुसलमान जिनको उलेमा ने इतनी शिक्षा दी कि उन्हें हदीसों पर काफी भरोसा है वह आसानी से बगदादी के दृष्टिकोण से प्रभावित हो जाते हैं जैसा कि हमने हाल में देखा है।
इसी प्रकार हम देखते हैं कि दुनिया भर के सभी मदरसों में यह पढ़ाया जाता है कि कुरआन अल्लाह का कलाम है, उसी प्रकार गैर मखलूक है जिस तरह कि खुदा। इस पर अधिक यह कि कुरआन की किसी भी आयत की उमूम (सार्वजनिकता) पर प्रश्न नहीं किया जा सकता, बल्कि उनमें से हर एक की कयामत तक इत्तिबा (अनुसरण) की जाएगी और उसकी हर हिदायत मुसलमानों के लिए स्थायी है। अब प्रश्न यह है कि आखिर इसी समझ के साथ कैसे कोई जिहादियों के उद्देश्यों पर प्रशन स्थापित कर सकता है कि क्यों जिहादी सुरह तौबा, सुरह अनफ़ाल और दोसरे सूरतों से जंगी उमूर से संबंधित आयतों से तर्क देते हैं और फिर अपने जिहादी आमाल का जवाज़ पेश करते हैं?
हर वह जंग जो नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम पर फर्ज़ की गई उसमें अपने प्रतिद्वंदी को क़त्ल करने के अहकाम दिए गए, मगर उन अहकाम पर अदायगी उस समय व्यर्थ हो जाती है जब जंग समाप्त हो जाता है। मगर ऐसा समय नहीं होता जबकि यह मां लिया जाए कि आदेश उस किताब में दर्ज है जो स्वयं खुदा की तरह गैर मखलूक है। तब तो इस बात का प्रश्न ही पैदा नहीं होता कि कौन सा आदेश आम और कौन सा मंसूख है। मौलाना ताहिरुल क़ादरी जिन्होंने छः सौ पृष्ठों पर आधारित फतवा ऑन टेररिज्म के नाम से एक किताब प्रकाशित की उनसे जब मैंने पूछा कि क्या कुरआन की जंगी हालतों से संबंधित आयतें जो मुसलमानों को शिक्षा देती हैं कि वह मुशरिकों का क़त्ल करें, वह आयतें क्या अब भी अमल के काबिल हैं तो उन्होंने जवाब हाँ में दिया और कहा कि जी हाँ सभी आयतें हमेशा के लिए अमल के काबिल हैं।
कुरआन में विभिन्न आयतें ऐसी हैं जो कठिन परिस्थितियों में सहिष्णुता, सद्भाव, शांति और धैर्य व दृढ़ता की शिक्षा देते हैं, यहाँ तक कि ऐसे समय में भी जब कि मक्का में इस्लाम इस्लाम की आरम्भिक दौर में मुसलमान तकलीफों से दोचार थे। मगर क्लासिकल थियोलॉजी की वह किताबें जो मदरसों और जिहादी अदब में पढ़ाई जातीं हैं उनमें यह दर्ज है कि अमन व रवादारी से संबंधित आयतों की आयतुल सैफ से मंसूख हो चुकी हैं जो कि मुसलामानों को दावत द्वती हैं कि वह मुशरिकों का खात्मा करें और यहूदीयों व ईसाईयों को अधीन लाएं। उनकी दलील यह होती है कि सुरह तौबा का नुज़ूल नबवी दौर के हिस्से में हुआ और इसी वजह से इसे खुदा का आखरी पैगाम माना जाना चाहिए जिसने कुफ्फार व मुशरेकीन के साथ मामलों की पिछली तमाम अह्कामों को मंसूख कर दिया है।
उनकी दलील यह होती है कि जंग लड़ने के आदेशों ने उन आदेशों को मंसूख कर दिया है जिनका नुज़ूल इब्तिदाई दौर में हुआ था जब मुसलमान बहुत कमज़ोर हालत में थे, लड़ने की सलाहियत नहीं रखते थे, यह वह आदेश थे जिन में तकलीफ व बरबरियत की हालत में सब्र व तहम्मुल की शिक्षा दी गई थी। जिहादी सिद्धांतों के मानने वाले और हमारे अक्सर उलेमा अकीदा नस्ख पर हद दर्जा इत्तेफाक रखते हैं।
जो उलेमा इस तरह की समझ रखते हैं उन्हें यह हक़ नहीं पहुंचता कि वह जिहादियों पर कोई प्रमाणिक आपत्ति कायम कर सकें। इसमें कोई हैरानी नहीं कि हमारे नौजवान उन उलेमा को मुनाफिकीन कहते हैं। हमारे नौजवान शिक्षित, इमानदार और निष्ठावान हैं। उन युवाओं में से सारे लोग जिहादियों के हाथ में अपना हाथ बेशक नहीं देते लेकिन उनमें से अक्सर युवा उलेमा की मुनाफिकत को देखते हैं कि वह किस तरह ऐसे की निंदा कर रहे हैं जो अपनी जान और अपना कैरियर दावं पर लगा कर उन्हें कामों को अंजाम दे रहे हैं जिन की प्रकाशन स्वयं यही उलेमा कर रहे हैं। इसमें कोई हैरत की बात नहीं कि उन युवाओं में कुछ तो ऐसे हैं जो दोसरी राह विकल्प करते हैं ताकि वह इन आदेशों को अमली जामा पहना सकें जिनकी उन्हें आन लाइन या ऑफ लाइन शिक्षा दी गई है, और इसकी एक वजह तो उलेमा की मुनाफिकत की प्रतिक्रिया है।
मोतज़ेला कहलाने वाले अल्पसंख्यक वादी धार्मिक विशेषज्ञों को दोसरी सदी हिजरी या नवीं सदी इसवी के मध्य तक पूरी आज़ादी से यह हक़ हासिल था कि वह अपने सिद्धांत कुरआन का प्रसारण एवं प्रकाशन कर सकें और यह बटा सकें कि कुरआन मखलूक है। लेकिन इसके बाद से ही रिवायती उलेमा ने अपना वर्चस्व स्थापित किया और रिवायती उलेमा की शिक्षाओं की तकलीद की पॉलिसी की इक्तिदा की और खुदा दाद इज्तिहाद की सलाहियत को बरुए कार ना ला सके। और इस तरह इज्तिहाद का दरवाज़ा लगभग एक हज़ार साल से बंद है।
उलेमा की इस बालाद्स्ती का सबसे अधिक तबाह करने वाला परिणाम उस्मानी सलतनत में करीब चार सदियों तक पाबंदी लगे प्रिंटिंग प्रेस की दरआमद के मसले में देखने को मिला। उलेमा ने कहा कि प्रिंटिंग प्रेस शैतान की इजाद है, क्योंकि इसकी इजाद व तरक्की योरोप में हुई थी। इसकी वजह से मुसलामानों में फिकरी पसमांदगी पैदा हो गई जो आज तक जारी है। हालात अब भी अधिक नहीं बदले हैं। दक्षिण एशिया में स्थित मदरसों में सबसे अधिक प्रभावी दारुल उलूम देवबंद है जिसने हाल ही में बहुत बेरुखी से इंटरनेट प्रयोग करने की अनुमति दी और वह भी केवल इस्लामी दावत के उद्देश्यों को अंजाम देने और दोसरों को इस्लाम कुबूल करने की दावत देने को ही जायज़ बताते हैं।
यह बिलकुल स्पष्ट है कि उलेमा इस परेशानी का एक भाग रहे हैं जिसका सामना सदियों से मुसलमानों को करना पड़ रहा है। यहाँ तक कि जिहादी आतंकवादी हिंसा और बालादस्ती के सिद्धांतों की एक सहायक पैदावार है जिसकी वह मदरसों में शिक्षा दे रहे हैं। अब अचानक क्या वह हल का हिस्सा बन सकते हैं? बेशक वह ऐसा बन सकते हैं मगर तभी जब वह ऐसा करने का इरादा करें। तथापि इस काम को अंजाम नहीं दिया जा सकता जब तक कि वह मौजूदा दौर के हालात व सबूतों पर नज़र करते हुए उचित और संगठित मनहज को बरुए कार ला कर धर्म की अनावश्यक विचारधारा पर नए सिरे गौर ना कर लें। जिहादिज्म का रद्द करने के लिए उन्हें इस बात की आवशयकता है कि वह जिहादी लिट्रेचर का अध्यन करें तो उन्हें पता चलेगा कि क्या परिवर्तन वह अपने विचारधारा में बना सकते हैं जिनकी बुनियाद पर वह जिहादिज्म का रद्दे बलीग़ कर सकें।
इस्लामी फिकह का एक कानून शरई उद्देश्यों पर नज़र करना है जो दोसरे संबंधित विवरण सहित जैसे मसलेहत और उमूम ए बलवा, अधिकतर मामलों में बहुत हद तक रुखसत अता करता है ताकि मौजूदा दौर के आवश्यकताओं को काम में लाया जा सके। यह बात मानते हैं कि आलोचना में सुधार के लिए बेशक इन्किलाबी सतह की पेशरफ्त दरकार है क्योंकि यह काम इतना आसान नहीं कि एक सरसरी निगाह से ही अंजाम तक पहुँच सकें। इस दिशा में अब तक तो कोई काम नहीं हुआ, हालांकि उलेमा को जिहादिज्म का रद्द ए बलीग़ करने की दरख्वास्त करने वाली हुकूमतें उलेमा के बे असर और मुनाफिकाना बलागत को ख़ुशी से स्वीकार कर चुकी हैं, और देकहा तक नहीं कि उनकी इन बलागतों का हल्का भी प्रभाव नहीं हो रहा है।
जिहादी लिट्रेचरों और मदरसों में पढाए जाने वाली रिवायती थियोलॉजी में बसे बुनियादी जिहादी जड़ों पर मेरा अध्यन दशकों से है और उसी आधार पर मैं यह स्टैंड रखना चाहूँगा कि कम से कम निम्नलिखित बिन्दुओं को उलेमा जिहादी सिद्धांतों के रद्द और इब्ताल में ज़ेर ए गौर रखें ताकि उनका यह कार्य प्रभावी हो सके। उन पर आवश्यक हैकि वह इन बिन्दुओं की व्याख्या करते हुए सैद्धांतिक इस्तिलाह व मनहज के साथ संतोषजनक जवाब दें अगर वह सच में चाहते हैं कि युवाओं पर इसका साकारात्मक प्रभाव हो सके और फिर वह अधिक हिंसा की राह विकल्प करने से बाज़ रहें।
१- जिहाद फी सबीलिल्लाह लाज़िमन नफ्स और बुरे सोच विचार के खिलाफ जीर्ण संघर्ष करके अल्लाह के अधिकारों की अदायगी का नाम है। यह एक निरंतर संघर्ष है जिसका सामना मुसलमानों को हमेशा करना पड़ता है, ताकि उनका दिमाग खुदा के ज़िक्र से ना भटक जाए। यह समस्या उलेमा के लिए बहुत कठिन हो सकता है क्योंकि फिकह के मज़ाहिब ए अरबा के नज़दीक जिहाद फी सबीलिल्लाह का अर्थ दावत ए इस्लाम की नशर व इशाअत और फिर उनसे क़िताल करना जो उसे स्वीकार ना करें। ताकि इसे करना आवश्यक है अगर वाकई जिहादिज्म का रद्द प्रभावी अंदाज़ में करने का इरादा हो।
2- अल्लाह की राह में क़िताल करना भी जिहाद फी सबीलिल्लाह की एक कसम है लेकिन यह जिहाद ए असगर। जिहाद फी सबीलिल्लाह का (ho।y war) मुक़द्दस जंग से कोई संबंध नहीं। इस्लाम में मुक़द्दस जंग की कोई कल्पना नहीं है। कभी कभार जिहाद फी सबीलिल्लाह मज़हबी अज़ीयत व बरबरियत और अत्याचार के खिलाफ लड़ी जा सकती है और वह भी कुछ शर्तों के साथ कि जिस्मानी काबिलियत हो और सर्वसम्मत इस्लामी राज्य के शासक के आदेश के नीचे हो। तथापि इसका मुकाबला अत्यंत कठोर शर्तों के साथ करना पड़ा था जैसे किसी इस्लामी राज्य के बचाव में लड़ना या जंग का एलान पहले ही करना, दुश्मन राज्य से सभी समझौतों को ख़त्म करना, किसी भी हालत में गैर लड़कों को कोई हानि नहीं पहुंचाना, आदि। गिरोह या कोई एक व्यक्ति किसी भी हालत में हक़ नहीं रखते कि किसी तरह की जंग में शरीक हो जाएं और फिर उसे जिहाद फी सबीलिल्लाह का नाम दे दें।
३- कुरआन की वह आयतें जिनका संबंध युद्ध मामलों से है, जैसे सुरह तौबा, सुरह अनफ़ाल, सुअरह मायदा, सुरह बकरा और सुरह हज आदि, तो इनका प्रयोग मुशरेकीन और अहल ए किताब के खिलाफ स्थाई जंग के लिए प्रयोग नहीं किया जा सकता।
कुरआन अल्लाह की मखलूक है। यह उन आयतों का एक समूह है जो प्रारंभिक मक्की दौर में मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम पर उस आफाकी मज़हब के लिए हिदायत के तौर पर नाज़िल हुई हैं जो ज़मीन पर हज़रत आदम अलैहिस्सलाम की पैदाइश से ही सभी कौमों की तरफ एक ही संदेश के साथ भेजे जाने वाले सामान हैसियत के विभिन्न रसूलों (कुरआन २:१३६) के माध्यम से भेजा गया है। इसलिए, वह प्रारम्भिक आयतें जो हमें अमन और सहअस्तित्व, अच्छे समाज, सब्र, सहिष्णुता और बहुलतावाद की शिक्षा देती हैं कुरआन की बुनियादी और रचनात्मक आयतें हैं। यही इस्लाम का मूलभूत संदेश है।
लेकिन कुरआन में बहुत सारी ऐसे प्रसंग वाली आयतें भी हैं जो नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम और आप के सहाबा के लिए सख्त और मुश्किल भरे हालात से निमटने के लिए अहकाम के तौर पर नाज़िल हुईं थीं इसलिए मुशरेकीन ए मक्का और मदीना के अक्सर अहल ए किताब ने नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के माध्यम से आने वाले खुदा के संदेश को स्वीकार करने से इनकार कर दिया था और नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम और आप के कुछ सहाबा को मिटाने का इरादा कर लिया था। यह आयतें महान एतेहासिक महत्व के हामिल हैं और हमें यह बताती हैं कि हमारे धर्म को स्थापित करने में हमारे नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को कैसी अपराजेय कठिनाइयों और मुश्किलों का सामना करना पड़ा था। लेकिन अपनी एतेहासिक महत्व के बावजूद १४०० सौ साल पहले जब जंग समाप्त हो गई और अल्लाह के फज़ल से इसमें मुसलमान विजई हो गए तो अब यह आदेश हमारे लिए लागू करने योग्य नहीं हैं। हम अभी किसी जंग की हालत में नहीं हैं। जिहादी मुफक्किरीन जो अपने राजनीतिक इरादों की तकमील के लिए इन आयतों का गलत इस्तिमाल करते हैं, यहाँ तक कि वह पारम्परिक उलेमा जो यह दृष्टिकोण रखते हैं कि इनका निफाज़ आज की इक्कीसवीं शताब्दी में भी लाज़िम है, तो असल में वह इस्लाम की खिदमत नहीं बल्कि इसके खिलाफ अमल को अंजाम दे रहे हैं। मुसलमानों को इस जाल में फसने की आवश्यकता नहीं।
४- आज जिस अंदाज़ में कट्टरपंथी तत्व उसूल ए नस्ख बयान करते हैं वह गलत और निराधार है। खुदा कोई ऐसा आदेश नहीं दे सकता जिसे बाद में मंसूख करना पड़े सिवा ए कुछ आदेशों के जिन का आदेश और इतलाक व इन्तिबाक सामयिक हो जैसा कि युद्ध से संबंधित आयतें। यहाँ तो कोई प्रशन ही नहीं कि मक्की आयतें जो कठिन समय और अपरिहार्य परिस्थितियों में अमन व रवादारी और एक दोसरे के साथ अच्छे बर्ताव की शिक्षा देतीं हैं वह मदनी आयतों से मंसूख हैं। इस बात की खबर तो हमें स्पष्ट तौर पर तफ़सीर की भिन्न किताबें देती हैं और उसी की मदरसे अपने बच्चों को शिक्षा देती हैं।
अठारहवी शताब्दी के विद्वान शाह वलीउल्लाह देहलवी जैसे मुफ़स्सेरीन ने मंसूख आयतों की पांच सौ आयतों से घटा कर केवल पांच बताए हैं। लेकिन इसके बावजूद मौजूदा दौर के मुफ़स्सेरीन ए कुरआन पहले वालों की इत्तेबा करते हैं और केवल उसी को नकल करते हैं जिसको मुतकद्दीमीन ने एक भिन्न संदर्भ और भिन्न स्थान में ख़ास कर के कहा था। तफ़सीर की प्राचीन किताबों का यहाँ तक दावा है कि एक आयत अल सैफ अकेले ही १२४ मंसूख आयतों के लिए नासिख हैं जिनका नुज़ूल मक्का के प्रारम्भिक दौर में हुआ था। बीसवीं शताब्दी के गुलाम अहमद परवेज़ जिन्होंने नस्ख के सिद्धांत को बातिल करार दिया था उन्हें हमारे उलेमा ”अकल परस्त” कहते हैं, मानो कि अकल पसंदी होना इस्लाम में कोई अपराध हो।
बस बहुत हो चुका अब इस प्रकार की बाते बंद होनी चाहिए फिर हमें लोगों को यह बताना चाहिए कि अमन व रवादारी की शिक्षा पर आधारित मक्की आयतें बाद में नाज़िल होने वाली उन मदनी आयतों से मसूख नहीं जो मुशरेकीन और अहल ए किताब के खिलाफ जंग की शिक्षा देती हैं। मदनी आयतों का संबंध केवल उन ही परिस्थितियों में था जिनके लिए नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम और उनके सहाबा को सातवीं शताब्दी हिजरी के शुरू में लड़ने का आदेश दिया गया था, जैसा कि सुरह तौबा का नुज़ूल नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के गजवा ए तबूक (६३० ई० मुताबिक़ ९ हिजरी) के मौके पर हुआ था। इसी कारण इसे लागू करने योग्य नहीं माना जाए क्योंकि जंग का समय समाप्त हो चुका है।
५- आइएस आइएस और दोसरे कट्टरपंथी सिद्धांतों के माध्यम से पेश किया गया मलहमा कुबरा थ्योरी का आधार संदेहास्पद हदीसों पर आधारित है और इसकी हैसियत नहीं, इसी कारण मुसलमानों को चाहिए कि वह इसे गंभीरता से ना लें।
उग्रवादी विचार के लोग अपने अमल का औचित्य पेश करने के लिए विभिन्न हदीसों का हवाला देते हैं। पाकिस्तानी धार्मिक विद्वानों ने तथाकथित गज्वतुल हिन्द (भारत के विरुद्ध धार्मिक सलीबी जंग) के बारे में जो बड़े पैमाने पर प्रोपेगेंडा किया है, वह भी असल में आखिर ज़माने की थीसिस का वक भाग है। इस बात पर ज़ोर देना होगा कि हदीस (मौजुअ हदीस) को वही के साथ उलझाया नहीं जा सकता। रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की हदीसों की किताबत का काम त्वरित रूप से प्रारम्भ नहीं हुआ था। हाँ कुरआन की किताबत और हिफ्ज़ का काम फ़ौरन और विभिन्न सहाबा के माध्यम से हुआ। हदीस की रिवायत एक लम्बी सनद के साथ हम तक पहुंची है। हज़ारों हदीसें विभिन्न कारणों से नकली करार दी जाती हैं। इसलिए हदीसें जो आम तौर पर काफिरों के खिलाफ जंग का मुतालबा करती हैं या वह हदीसें जो हतमी समय की जंगों से संबंधित हैं उनका प्रयोग गजवा ए हिन्द जैसी नई जंगें शुरू करने के लिए नहीं किया जा सकता।
६- तक्फीरिज्म इस्लाम में अस्वीकार्य है। अल्लाह पाक ने तौहीन ए रिसालत या इर्तिदाद के लिए किसी सज़ा का कानून निर्धारित नहीं किया। ना ही उसने किसी इंसान, हाकिम या विद्वान को ये विकल्प दिया है कि वह किसी को भी सज़ा दें। हालांकि अगर यह सबूत मिल जाए कि किसी ने इन अपराधों का प्रतिबद्ध किया है, तो उस स्थिति में भी सज़ा का मामला केवल अल्लाह पाक के हवाले होना चाहिए। इसलिए इर्तिदाद या तौहीन ए रिसालत या बातिल अकीदों व आमाल की धारणा के आधार पर तकफीर के सभी अहकाम को असाध्य माना जाए।
इस बारे में इर्तिदाद पर सज़ा का जवाज़ देने के लिए रिद्दा जंगों की एतेहासिक मिसाल का हवाला दिया जाता है। पहले खलीफा हज़रात अबू बकर रज़ीअल्लाहु अन्हु ने रिद्दा जंगें लड़ीं लेकिन वह एक बहुत ही भिन्न ज़मान व मकान में स्थित हुईं। हमें इस बात का कतई इल्म नहीं कि आखिर किस वजह से वह ऐसी जंगें लड़ने पर मजबूर हुए। यह बात भी पेश ए नज़र है कि इस्लाम समझने के मामले में आज हम सैदना अबू बकर सिद्दीक रज़ीअल्लाहु अन्हु का मुकाबला नहीं कर सकते। वह तो पहले व्यक्ति थे जिन्होंने इस्लाम को स्वीकार किया और तीस साल के नबवी दौर में हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के सब से करीबी साथी भी रहे थे। आज हम रिद्दा जंगजू की तारीखी घटनाओं का हवाला दे कर इर्तेदाद के किसी मफरुज़ मुजरिम को सज़ा ए मौत का आदेश नहीं सूना सकते।
अकीदे के मामले में इतिहास अच्छी रहनुमा नहीं है। इतिहास को भिन्न तरीकों से पेश किया जा सकता है। इतिहास अक्सर उस समय के हुक्मरानों के लिए मौजूं तैयार किये हुए कहानियों पर आधारित होता है। हमें इस वास्तविकता से मुंह नहीं मोड़ना चाहिए कि कुरआन व सुन्नत कोई सज़ा तजवीज नहीं करते हैं, और ना ही वह हम में से किसी को यह विकल्प देते हैं कि वह उन गुनाहों की वजह से दोसरों को सज़ा ए मौत दें। यह मामला अल्लाह पाक और एक मुसलमान के बीच है। आइए हम वादा करें जो काम अल्लाह के कुदरत में है उसे उसी के हवाले करें और इसमें दखल अंदाजी ना करें। आइए हम कुरआन व हदीस के आधार पर सभी तक्फिरी सजाओं और रिद्दा जंगों पर प्रतिबंध लगा दें।
७- इस्लामी इतिहास में लम्बे समय तक, खुद को खलीफा कहने वाले मुसलमान बादशाह साम्राज्यीय जंगों का पीछा करते हुए अपने क्षेत्रों का फैलाव और विस्तृत करते रहे। उलेमा ए दीन ने उस ज़माने में मुसलिम सहिफों का प्रतिनिधित्व उस अंदाज़ से करते थे जो उस समय के अनुसार था। उन जंगों को इस्लाम के मोर्चों को विस्तार देने के लिए जिहाद फी सबीलिल्लाह से ताबीर किया गया। अब हम आधुनिक राष्ट्रीय राज्यों की दुनिया में रह रहे हैं। हमारे अंतर्राष्ट्रीय संबंध संयुक्त राष्ट्र संगठन के चार्टर के रहनुमाई उसूल के पाबंद हैं जिस पर सारी मुस्लिम बहुस्न्खाय्क राज्यों सहित पूरी दुनिया ने हस्ताक्षर किये हैं। आज किसी भी राज्य के लिए यह संभव नहीं कि वह नए क्षेत्रों को फतह करे और वहाँ अपनी हुकमरानी कायम करे जैसा कि बीसवीं शताब्दी की पहली दहाइयों तक मामूल था। इसलिए यह चिंता कि मुसलमानों को अपने धार्मिक फरीज़े को अंजाम देने के लिए साल में कम से कम एक बार जिहाद करना चाहिए, इस चिंता को छोड़ देना चाहिए, इसे परे कि इस चिंता को इमाम अबू हामिद मोहम्मद अल गज्ज़ाली (१०५८ से ११११ ई०) जैसे कद्दावर आलिम ए दीन ने लाज़मी करार दिया था। इसमें शक है कि इस प्रकार की व्याख्या करते समय भी किसी तरह की नकली दलील व जवाज़ शामिल रही हो। इस दौर में यह बिलकुल असाध्य है और खुदा हमें असंभव काम को अंजाम देने का बोझ हम पर नहीं डालता (कुरआन २:२८६)। मध्य युगीन व्याख्या जो हिंसा और घृणा पर उभारती हैं उन्हें मदरसा की निसाबी किताबों से ख़त्म कर दिया जाना चाहिए।
८- ना तो कुरआन में ना ही हदीस में मुसलामानों के लिए वैश्विक ख़िलाफ़त के मुताल्बे की सहीफी इजाज़त है। सहिष्णुता पर aadhaअरित आधुनिक राज्य मीसाक ए मदीना के प्रदान किये हुए संविधान के तहत इस्लाम के पैगम्बर (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के माध्यम से तैयार की हुई पहली इस्लामी राज्य के अनुसार हैं। मुसलमानों को वैश्विक ख़िलाफ़त की आवश्यकता नहीं है, हालांकि मुस्लिम बहुसंख्यक राष्ट्र कुरआन की शिक्षाओं की रौशनी में आपसी भाई चारे के जज़्बे में अधिक से अधिक एक दोसरे की सहायता कर सकते हैं और यहाँ तक कि यूरोपीय यूनियन और दोसरे क्षेत्रीय समूहों की तर्ज़ पर मुसलमान राज्यों की साझा दौलत निर्माण कर सकते हैं। खिलाफत ए उस्मानिया की सुरक्षा के लिए भारत में तहरीक ए ख़िलाफ़त ने एक शताब्दी पहले जो जज़्बात पैदा किये थे वह अब भी पुर्णतः समाप्त नहीं हुए हैं। यह आवश्यक है कि इस आन्दोलन के अदम जवाज़ का नए सिरे से अध्ययन किया जाए और उसकी कोताहियों को सामने लाया जाए।
९- आधुनिक लोकतंत्र कुरआन की शिक्षा “अमुरुहुम शूरा बैनहुम” की नसीहत की तकमील है। इसलिए मुसलमानों को चाहिए कि जिन देशों में वह रहते हैं चाहे वह अल्पसंख्यक हों या बहुसंख्यक जम्हूरी इदारों को मजबूत बनाने की कोशिश करें। यह सहीह हो सकता है कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की रह्लत के बाद प्रारम्भिक वर्षों के दौरान ही इस्लामी इतिहास में सत्ता का स्थानांतरण लोकतांत्रिक अंदाज़ में हुआ हो। उस समय से ले कर अब तक अमरुहुम शूरा बैनहुम का कुरआनी आदेश (शूरा ३८:४२) पर अमल नहीं हो रहा है। कुरआन के पूर्ण मानव समानता के संदेश (अल हुजरात : १३:४९) के साथ साथ शूरा बैनहुम ने आधुनिक लोकतंत्र का पूर्ण सिद्धांत प्रदान किया। लेकिन इन दोनों कुरआनी अहकाम को पूरी इस्लामी इतिहास में अनदेखा किया गया। हमारा इतिहास बड़े पैमाने पर दमनवादी शासकों की कहानी है जो तकवा के लिबास पहने हुए हैं और अधिकतर उलेमा ने कुरआन की आफाकी हिदायतों की खिलाफ वर्जी करते हुए गुमराह कुन फतवों के साथ उनके आमिराना और साम्राज्य की हिमायत की है। इसके परिणामस्वरूप आज भी कम मुस्लिम देश एक अच्छी कार करदगी का प्रदर्शन करने वाली जम्हूरियत का दावा कर सकते हैं। जिहादी सिद्धांतों के मानने वाले इस बात की तबलीग करते हैं कि लोकतंत्र ताग़ूती व्यवस्था है, लेकिन अब यह अधिकतर इस्लाम दुश्मन या पश्चिमी साम्राज्य के एजेंट के लिए प्रयोग होती है। यह पूर्णतः झूट पर आधारित है और इस्लामी शिक्षाओं के प्रतिकूल है। आवश्यकता है कि हमारे उलेमा इस को अस्वीकार करें और इसका पुरजोर रद्द करें। लोकतंत्र इस्लामी तर्ज़ ए हुकमरानी की बेहतरीन रिवायत में से है। हमारे पहले चार खुलफा खुलेफा ए राशेदीन का चुनाव लोकतन्त्रात्मक रूप में पुरे मुसलमानों की एक राय से हुआ था। हिंसा की शिक्षा देने वाली नज़रियात जो मुसलमानों को दावत देती हैं कि वह हुकुमत ए इलाहिया या इकामत ए दीन के लिए संघर्ष करें उन्हें पूरी तरह अस्वीकार कर देना चाहिए। लोकतंत्र हमारे लिए खुदा की ओर से चुना हुआ रास्ता है और इसी की पैरवी हमारे सल्फ़ सालेहीन ने उस समय तक की जब तक वह कर सकते थे। उस सल्फ़ सालेहीन के विरोध में इस्लामी इतिहास के प्रारम्भिक दशकों के लोकतंत्र के प्रणाली को अत्याचारी आमिरों ने मग्लूब किया जिसने शाही तर्ज़ का मौरूसी खिलाफत स्तापित किया। चौथे खलीफा हज़रात अली रज़ीअल्लाहु अन्हु ने हज़रात मुआविया के जरिये विकल्पों के नाजायज प्रयोग के खिलाफ लड़े और इमाम हुसैन ने ख़िलाफ़त को मौरूसी बादशाहत में बदलने वाली प्रणाली के खिलाफ अपनी जान तक की कुर्बानी पेश कर दी।
१०- इस्लाम दुनिया पर वर्चस्व स्थापित करने का निरंकुश राजनीतिक दृष्टिकोण नहीं है। हालांकि इस्लाम हमारी जिंदगी के विभिन्न मामलों में हमारी रहनुमाई करता है, लेकिन यह बुनयादी तौर पर निजात का रूहानी रास्ता है जिसे खुदा ने इंसानों के पास विभिन्न अंबिया के माध्यम से भेजा है (कुरआन ५:४८), सब बिना भेदभाव के (कुरआन २:१३६, २१:२५, २१:९२)। खुदा ने हम से नेक काम अंजाम देने में एक दोसरे से आगे बढ़ने की शिक्षा दी है (कुरआन २:१४८, २३:६१) और इसी चीज पर हमें ध्यान देना चाहिए। चूँकि कुरान सारे पिछले अकीदों की तस्दीक और तौसीक करने आया था, इसलिए हम दोसरे धर्मों का सम्मान और उसी पवित्र राह की दावत देने वालों को कुबूल कर सकते हैं। इस्लाम दोसरे धर्मों में सबसे अधिक सहिष्णुता पर आधारित है और इसी कारण मुसलमानों को लोगों में सबसे अधिक बहुलतावादी होना चाहिए।
११- सभी धर्मिक समूहों का निर्णय उनकी अपनी शरीअत के आधार पर कयामत के दिन किया जाएगा। इसलिए यह कहना कि मुसलमान ही जन्नत में जाएंगे यह निराधार है। कुरआन ने ख़ास तौर पर यहूदी जैसी पिछली धार्मिक समूहों का उदहारण पेश करते हुए ऐसे ख्यालों की निषेधता बयान की है जो अपने को “चुने हुए लोग” समझते हैं। असल में कुरआन ने उन यहूदियों के दावे को खारिज कर दिया जो जन्नत को केवल अपने लिए ख़ास मानते थे (२:९४)। खुदा सभी धार्मिक गिरोहों का उनके अपनी शरीअत के अनुसार फैसला करेगा जो उनको दिए गए हैं (कुरआन ५:४८)। यहाँ कोई चुनी हुई कौम नहीं जो अकेले ही जन्नत में जाएंगे। मुसलमानों के पास किसी दोसरे धार्मिक गिरोह के साथ अपमानजनक व्यवहार करने का कोई कारण नहीं है।
१२- अल वलाअ वल बराअ का अकीदा कट्टर पंथी तत्वों के माध्यम से हमारे मदरसों विशेषतः सऊदी अरब में पढ़ाया जाता है। यह मौजूदा समाज में अत्यंत पेचीदा और विश्व समुदाय में गलत फहमी के साथ साथ अव्यवहारिक भी है। आज यह संभव नहीं कि केवल मुसलमानों के साथ रिश्ते कायम किये जाएं और गैर मुस्लिमों के साथ संबंध तोड़ लिए जाएं। मदरसों के निसाब जो इस तरह की शिक्षा देते हैं उन्हें चाहिए कि अपने निसाब की तरमीम करें क्योंकि यह हमारे बच्चों को समाज में एक आलीशान जीवन जीने से महरूम रखते हैं। इस अकीदे का मतलब हो सकता है मुसलमानों की आपसी लगाव और भाईचारा व सहिष्णुता जिसकी कुरआन भी तरवीज व इशाअत करता है। (कुरआन ४९:१०) मगर इसका हरगिज़ यह अर्थ नहीं कि दोसरी धार्मिक जमातों से संबंध समाप्त कर दिया जाए। कुरआन सारे इंसानों को बराबर रूप से सम्मान देता है (कुरआन १७:७०)।
१३- अल वलाअ वल बराअ का अकीदा जिसकी गलत ताबीरों का एक खतरनाक परिणाम यह होता है यह अकीदा ए तकफीर के साथ मिल कर मुसलमानों को दोसरे फिरके के मुसलमानों से भी संबंध तोड़ने का कारण बन रहा है। भुत सारे मुस्लिम उलेमा दोसरे मुस्लिम फिरकों को काफिर करार देने के लिए तकफीर के नजरिये का प्रयोग करते हैं और इस तरह दोसरों को इस्लाम से बाहर करार देते हैं और फिर उनको क़त्ल करने की तरगीब देते हैं। शियों, अहमदियों और सूफियों पर हमले लगातार होते रहे हैं। असल में, मध्य पूर्व में यह सुन्नी शिया कुशी ही थी जिसने तथाकथित इस्लामी रियासत के उत्थान को बड़ी सहायता की। उलेमा को इन दोनों अकीदों के खिलाफ पुरज़ोर आवाज़ उठाना चाहिए और जिस तर्ज़ ए अमल के साथ इन्हें अंजाम दिया जा रहा है उसे ग़ैर इस्लामी कार्य करार देना चाहिए।
१४- अम्र बिल मारुफ़ व नही अनिल मुनकर एक सुंदर इस्लामी अकीदा है लेकिन ताकत के प्रयोग से इसको दोसरे पर जब्र कर के ज़ेर ए अमल नहीं लाया जा सकता। यह समझना आवश्यक है कि प्रसिद्ध इस्लामी विद्वान जावेद अहमद गामदी ने स्पष्ट किया कि प्रिसद्ध इस्तिलाह में उसे कहते हैं जो वैश्विक स्तर पर सबके नज़दीक स्वीकार्य व सहीह हो और मुनकर वह है जिस को वैश्विक स्तर पर लोगों ने गलत माना हो। इस नजरिये में लोगों को इस्लाम कुबूल करने पर मजबूर करना और उन्हें कुफ्र करने से जबरी तौर पर रोकना शामिल नहीं है। जो लोग इस नजरिये को धर्म के मामलों में शक्ति का प्रयोग करते हैं वह गलत हैं और उनका विरोध किया जाना चाहिए। उलेमा को मारुफ़ और मुनकर जैसी इस्तिलाह के बारे में उनकी समझ पर फिर से नज़र करनी होगी और इस नजरिये को लागू करने के लिए शक्ति के प्रयोग के विरुद्ध बात करना होगा।
१५- ला इक्राहा फिद्दीन जिसका अर्थ है दीन में कोई जब्र नहीं यह एक निरपेक्ष और आफाकी कुरआनी नजरिया है और किसी भी हालत में इसकी खिलाफवर्जी नहीं की जा सकती। कुरआन की विभिन्न दोसरी आयतों जैसे १०:९९ और २९:१८ इसी नजरिये का समर्थन करती हैं। आयत १८:२९ इसी नजरिये पर ज़ोर डालता है:
"وقل الحق من ربکم فمن شاء فلیومن ومن شاء فلیکفر ’’
उलेमा को कुरआन की इन आफाकी शिक्षाओं को नज़र अंदाज़ करना छोड़ना चाहिए, जैसा कि वह अब करते हैं, और इसके बजाए अगर वह वास्तव में जिहादिज्म के खिलाफ कोई रद्द बयानी करना चाहते हैं तो उन आफाकी अदम जब्र व इकराह की शिक्षाओं का प्रचार करना शुरू कर दें।
१६- सभी धार्मिक समूहों को अहल ए किताब समझना चाहिए जिनके साथ वैवाहिक संबंधों सहित अत्यंत गहरे संबंध तक की अनुमति हैं। क्योंकि कुरआन के अनुसार, खुदा ने सभी कौमों में अंबिया को भेजा है, उन पर वही नाज़िल की जो किताबी शकल में जमा हुई। उनमें से कुछ अंबिया का उल्लेख तो किया जाता है लेकिन बहुतों का नहीं। एक हदीस के अनुसार नबियों की संख्या लगभग एक लाख चौबीस हज़ार है जो दुनिया के विभिन्न भागों में आए थे और अपने समय और स्थान की भाषाओं में खुदा का संदेश लाते थे। आइए देखते हैं कि खुदा वास्तव में कुरआन में इस संबंध में क्या कहता है।
“और हर उम्मत में एक रसूल हुआ जब उनका रसूल उनके पास आता उन पर न्याय का निर्णय कर दिया जाता आयर उन पर अत्याचार नहीं होता” (१०:४७)
“और बेशक हमने तुमसे पहले कितने रसूल भेजे कि जिनमें किसी का अहवाल तुम से बयान फरमाया और किसी का अहवाल नहीं बयान फरमाया और किसी रसूल को नहीं पहचानता कि कोई निशानी ले आए बिना खुदा के हुक्म के, फिर जब अल्लाह का हुक्म आएगा सच्चा फैसला फरमा दिया जाएगा और बातिल वालों का वहाँ खसारा” (४०:४८)
“यह कहो कि अहम ईमान लाए अल्लाह पर उस पर जो हमारी तरफ उतरा और जो उतारा गया इब्राहीम व इस्माइल व इसहाक और याकूब अलैहिमुस्सलाम और उनकी औलाद पर और जो अता किये गए मूसा व ईसा और जो अता किये गए बाकी अंबिया अपने रब के पास से हम उन पर ईमान में फर्क नहीं करते और हम अल्लाह के हुजुर गर्दन रखते हैं” (२:१३६)
“और हमने तुम से पहले जीतने रसूल भेजे सब मर्द ही थे जिन्हें हम वही करते और सब शहर के रहने वाले थे तो यह लोग ज़मीन पर चले नहीं तो देखते उन सब पहलु का क्या अंजाम हुआ और बेशक आख़िरत का घर परहेज़ गारों के लिए बेहतर तो क्या तुम्हें अक्ल नहीं,” (१२:१०९)
सबने माना अल्लाह और उसके फरिश्तों और उनकी किताबों और उसके रसूलों को यह कहते हुए कि हम उसके किसी रसूल पर ईमान लाने में फर्क नहीं करते और गरज कि हम ने सूना और माना तेरी माफ़ी हो ऐ रब हमारे! और तेरी ही तरफ फिरना है,” (२:२८५)
पारम्परिक इस्लामी थियोलॉजी कुरआन की इन आयतों को अनदेखा करते हैं। अमन और बहुलतावाद के एक नए वास्तविक इस्लामी थियोलॉजी को तैयार करते हुए उलेमा को खुदा के उन अहकाम को ध्यान में रखना चाहिए जो हमारे समय के उद्देश्यों के अनुसार भी होगा और बढ़ती हुई अतिवाद से लड़ने में हमारी सहायता भी करेगा।
आवश्यकता इस बात की है कि उलेमा ए इस्लाम एक ऐसी समाजी नजरिया पर ज़ोर दें जो सभी लोगों को पूरी मज़हबी आज़ादी अता करे। प्रारम्भिक दौर में जब मुसलामानों को असलहे से अपने बचाव की अनुमति दी गईथी तो उनसे कहा गया था कि यह उस समय आवश्यक है कि वह सभी मज़हबी कौमों की मज़हबी आज़ादी के सुरक्षा के लिए लड़ें। जैसा कि कुरआन में है” और अल्लाह अगर आदमियों में एक को दोसरे से दफा नहीं करता तो अवश्य ढा दी जातीं खानकाहें और गिरजा और कलीसे और मस्जिदें जिनमें अल्लाह का कसरत से नाम लिया जाता है” (२२:४०)
इस आयत में स्पष्ट रूप से मुसलमानों को सभी लोगों की धार्मिज्क आज़ादी के लिए लड़ने को कहा जा रहा है ना कि केवल मुस्लिम मज़हबी आजादी के लिए । इसलिए ऐसे मुसलमानों के लिए आवश्यक है कि वह हर उस जगह आवाज़ उठाएं जहां कहीं भी मज़हबी अल्पसंख्यक तकलीफों से दोचार होते हैं, विशेषतः उन देशों में जो मुस्लिम बहुल देश हैं। इस्लाम ने स्पष्ट रूप से यह स्वीकार किया है कि मज़हबी आज़ादी और इंसानी अधिकार दोनों अविभाज्य हैं इसलिए इस बिंदु को कॉल व फेल के माध्यम से फैलाना उलेमा का काम है। भारतीय मुसलमानों विशेषतः उलेमा के लिए यह आवश्यक है कि पाकिस्तान और बंगलादेश जैसे देशों में रह रहे हिन्दू और ईसाई अल्पसंख्यकों के लिए खड़े हों।
१७- इस्लाम में आत्महत्या पर प्रतिबंध है (४:२९) यह हर हालत में हराम है। यह इतना बड़ा गुनाह माना जाता है कि नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने अपने एक सहाबी की जिन्होंने ज़ख्म की शिद्दत असहनीय होने के कारण आत्महत्या कर ली थी उनके जनाज़े के नमाज़ में शिरकत से इनकार कर दिया जब कि वह नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की फ़ौज की ओर से जंग लड़ते हुए ज़ख़्मी हुए थे।
आत्महत्या को केवल मुसलमान जंगी तदबीरों के तौर पर प्रयोग नहीं कर सकते। यह दलील देना कि वह मुसलमान जो बेबस हैं और अत्याचार का सामना कर रहे हैं और उनके पास कोई दोसरा हथियार भी नहीं है वह अपने जिस्मों को तथाकथित शहादत के प्राप्ति के लिए जंगी असलहे के तौर पर प्रयोग कर सकते हैं यह दलील बिलकुल गलत है। यह दलील फ़ालतू है क्योंकि कुरआन व हदीस में स्पष्ट आदेश मौजूद हैं जो इस दलील को खारिज करते हैं। उलेमा को अवश्य इसकी वजाहत करनी चाहिए और इस्लाम में इसकी असल हैसियत को प्रचारित करना चाहिए। भारत में हमारे लिए यह अत्यंत शर्मनाक बात है कि पाकिस्तान के देवबंदी और वहाबी मदरसों में जहां हमारे ही मदरसों की तरह किताबें प्रयोग की जाती हैं, इस्लामी शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्र आत्महत्या को जायज हरबा मानते हैं। साफ़ है उलेमा ने अपने शिष्यों को इस बात की बेहतर वजाहत नहीं की कि इस्लाम ने आत्महत्या के साथ साथ बेगुनाहों का कत्ल करना भी शिद्दत से हराम करार दिया है।
मुझे आशा है कि उलेमा को यूट्यूब चैनल पर वीडियो बनाने और पोडकास्ट शुरू करने से पहले इस बात को स्पष्ट कर देंगे कि वह क्या कहने जा रहे हैं। उन्हें समझना चाहिए कि केवल अच्छे अंदाज़ में संबोधन करना या केवल मज़म्मती बयान देना हमारे लिए लाभदायक नहीं। वही आम मंकुलात जैसे “इस्लाम अमन का मज़हब है” ने अर्थ व समझ और अपने प्रभाव को बिलकुल खो दिया है। हमारे दिनचर्या के तजुर्बे में इस तरह के घिसे पिटे शब्द लतीफ़ा बन चुके हैं। मुस्लिम अपने मुस्लिम साथियों को नमाज़ के दौरान मस्जिद में मारने के लिए खुद ही बम से उड़ा रहे हैं, इस तरह की घटनाएं कोई अपवाद नहीं। ऐसा इस लिए होता है कि लोग अपने अपने तकफीरी नजरिये के कायल हैं।
तक्फीरियत उन्हें यह एहसास दिलाने की ताकत देती है कि वह उन लोगों को मौत की सज़ा दे सकते हैं जिन्हें वह उनके अपने ईमान व अमल के इज़हार के बावजूद काफिर समझते हैं। निश्चित रूप से काफिरों और मुशरिकों को कत्ल करना जिहाद समझा जाता है जैसा कि मदरसों के पाठ्यक्रम की दरसी किताबों में उन्हें यह पढ़ाया जाता है।
कोई भी विश्वास के साथ यह कह सकता है कि भारत में किसी भी मदरसे के उस्ताद अपने छात्र को इस तरह की शिक्षा नहीं देते। लेकिन इस बात का भी उसे उतना ही विश्वास हो सकता है कि धर्मों के संबंध में जिहाद और क़िताल और दोसरे अकीदों की ऐसी तारीफों की केवल मौजूदगी कम से कम कुछ छात्र में एक कट्टरपंथी मानसिकता पैदा करती हैं।
या वही विचार हैं जिन्हें विभिन्न अंदाज़ व बयान और शिद्दत के साथ इन दिनों आइएस आइएस और अलकायदा जैसी संगठनों की ओर से ऑन लाइन फैलाया जाता है, पाकिस्तान और जिहादी संगठनों के समूहों की बात ही छोड़िये। इसलिए हमारे मुस्लिम बच्चों को मदरसे जाने की आवश्यकता नहीं ताकि वह हमारे कलासिकी थियोलॉजी में उल्लेखित अतिवादी विचार से प्रभावित हो सके।
अच्छी जिंदगी गुज़ारने वाले बहुत सारे पेशा वर लोग पूरी दुनिया में जिहादी तहरीकों में शामिल हो रहे हैं। यहाँ तक कि कुछ भारतीय पेशेवर लोग भी आइएस आइएस के विचार के बहकावे में आ गए थे। इसलिए यह आवश्यक है कि वह उलेमा जो हिंसा और जिहादिज्म के रद्द व इब्ताल की जिम्मेदारी ले रहे हैं, उनके लिए आवश्यक है कि वह अपना ध्यान उन दलीलों और बहसों की धार्मिक बुनियादों पर रखें जिनका प्रयोग हमारे युवाओं को ब्रेनवाश करने के लिए किया जाता है।

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