Tuesday, May 27, 2014

Putting extra meanings into verses is not tolerable कुरानी आयात में अनावश्यक अर्थ जोड़ना असहनीय है






मुस्तफा अक्योल
22 फरवरी, 2014
मैं मलेशिया के उस खूबसूरत द्वीप पर हूँ जो पर्यटन का लोकप्रिय स्थल है, जहां प्रगतिशील विचारों वाले मलेशिया के थिंक टैंक पेनांग इंस्टिट्यूट ने ‘क्या आज़ादी इस्लामी मूल्य है’ के शीर्षक से एक टॉक की मेज़बानी की। इस आयोजन ने मुझे मलेशियाई मुसलमानों, चीनियों, हिंदुओं और ईसाइयों और दूसरों को सम्बोधित करने का मौक़ा दिया।
स्थानीय राजनीतिज्ञ के द्वारा दिया गया उद्घाटन भाषण सुनना सुखद रहा, क्योंकि उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता एक ऐसा मूल्य है जिसका समर्थन मुसलमानों को भी करना चाहिए। उन्होंने अपने भाषण में क़ुरान की निम्नलिखित महत्वपूर्ण आयत का हवाला दियाः
"धर्म (स्वीकार करने) में कोई बाध्यता नहीं होगी।" (2: 256)
हालांकि मैंने जिस क्षण कुरान की इस आयत का ये विशेष अनुवाद सुना जो कि मलेशिया और उससे बाहर आम है तो मैने हैरत से अपना सिर हिलाया। क्योंकि इस आयत में स्पष्ट रूप से ये दावा किया गया है कि "धर्म में कोई बाध्यता नहीं है" जबकि कोष्ठक में जो बात कही गई है वो स्पष्ट रूप से कुरान की आयत के अर्थ में वृद्धि है।

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