Wednesday, May 14, 2014

A Community which Lives on Prayers rather than Medicine दवाओं के बजाय सिर्फ दुआओं पर जीने वाला समाज

सादिक रज़ा मिस्बाही, न्यु एज इस्लाम
25 अप्रैल, 2014
आप कहीं इंटरव्यू के लिए जाएं और आपके नंबर 45 फीसद हों और आपके हिन्दू साथी के 40 प्रतिशत, तो मुमकिन है मार्क्स ज़्यादा होने के बावजूद आप के साथ भेदभाव किया जाए और आपके हिंदू साथी का चयन कर लिया जाए। लेकिन अगर 45 के बजाय आपके मार्क्स 80 या 90 फीसद हों तो यकीन कर लीजिए आपको भेदभाव की शिकायत का मौका नहीं मिलेगा।
आप बिज़नेसमैन हैं, मार्केट की उभरती डूबती कीमतों और वस्तुओं की कदर व कीमत पर गहरी निगाह रखते हैं तो आपको देखना पड़ेगा कि इस समय मार्केट वैल्यू किस चीज़ की है। अगर आप उसी तरह का माल बाज़ार में पेश करेंगे तो आप नाकाम भी हो सकते हैं, लेकिन अगर आप इससे अच्छी गुणवत्ता का माल लाकर रख देंगे तो निश्चित रूप से आप का माल सबसे ज़्यादा बिकेगा। ख़रीदार ये नहीं देखेगा कि दुकानदार मुसलमान है बल्कि आपके माल की क्वालिटी उसे आपके पास आने पर मजबूर कर देगी। खरीदार की नज़र किसी की जाति, धर्म और विचारधारा पर नहीं होती बल्कि गुणवत्ता और क्वालिटी पर होती है। ग्राहक बिना मानक वाली वस्तु को देखता तो है मगर खरीदने के इरादे से नहीं बल्कि उस पर उचटती सी निगाह डालता है और आगे बढ़ जाता है।
 

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