Saturday, January 31, 2015

Momin Muslimeen मोमिन मुसलमीन

Momin Muslimeen मोमिन मुसलमीन



















इरफान इंजीनियर
तंत्रता के बाद से,भारत में, राजनीतिज्ञों ने मुसलमानों को अपने पक्ष में करने के लिए पारंपरिक रूप से मुख्यतः तीन श्रेणियों के मुद्दों का उपयोग किया है.सुरक्षा,धार्मिक.सांस्कृतिक पहचान व मुसलमानों को देश की समृद्धि में उनका वाजिब हक दिलवाना। हाल में महाराष्ट्र में हुए विधानसभा चुनाव में आल इंडिया मजलिस.इत्तिहादुल.मुसलमीन के उम्मीदवारों की विजय ने यह साबित किया है कि एक चौथे मुद्दे का उपयोग भी मुस्लिम मतों को पाने के लिए किया जा सकता है और वह है, हिन्दू राष्ट्रवादियों का मुकाबला करने के लिए धार्मिक आधार पर एक होना। अलग.अलग समय पर इन मुद्दों का उपयोग, बदलती हुई रणनीतियों के तहत किया जाता रहा है। ये हैं 1. चुनावी राजनीति से दूरी बनाना 2. उन राजनैतिक पार्टियों की सदस्यता लेना, जिनमें मुसलमानों का बहुमत नहीं है व 3. मुसलमानों की अपनी राजनैतिक पार्टियां बनाना।
राजनैतिक रणनीतियां
पाकिस्तान में बसने के लिए भारत छोड़ने से पहले,मौलाना मौदूदी ने कहा था कि यदि भारत के मुसलमान अपने अधिकारों पर जोर देंगे तो उनके प्रति हिन्दुओं का पूर्वाग्रह बढ़ेगा। अतः, उनकी यह सलाह थी कि मुसलमानों को सरकार और प्रशासन से दूर ही रहना चाहिए ताकि हिन्दू राष्ट्रवादी आश्वस्त रहें कि उनके मुकाबिल मुस्लिम राष्ट्रवादी ताकतें लामबंद नहीं हो रही हैं। मौलाना के अनुसार, यही वह एकमात्र रास्ता था जिसके जरिए मुसलमान, इस्लाम के संबंध में बहुसंख्यक समुदाय के पूर्वाग्रहों को दूर करने में सफल हो सकते थे। साम्प्रदायिक राष्ट्रवादियों की दृष्टि में समाज में या तो किसी सम्प्रदाय का वर्चस्व हो सकता है या वह पराधीन हो सकता है। उन्हें बीच का यह रास्ता दिखता ही नहीं है कि दो समुदायों के सदस्य,मिलजुलकर,शांतिपूर्वक रह भी सकते हैं। यही समस्या मौलाना मौदूदी के साथ थी। मौलाना मौदूदी के पाकिस्तान जाने के बाद, उनके द्वारा स्थापित जमायते इस्लामी ने चुनावी राजनीति में भाग नहीं लिया। परंतु मौलाना की सलाह उन मुसलमानों के लिए किसी काम की नहीं थी जो कि अपनी रोजाना की जिंदगी की जरूरतों को पूरा करने की जद्दोजहद में लगे हुए थे।
देवबंदी उलेमाओं के संगठन जमायत उलेमा.ए.हिन्द ने हमेशा पाकिस्तान का विरोध किया। जमात ने कांग्रेस के नेतृत्व में चल रहे स्वाधीनता आंदोलन का इस उम्मीद में समर्थन किया कि स्वाधीन भारत में मुसलमानों को उनके धर्म का पालन करने की आजादी होगी और उनके पर्सनल लॉ से कोई छेड़छाड़ नहीं की जायेगी। जमायत का यह मानना था कि मुस्लिम सांस्कृतिक पहचान के लिएए गैर.मुस्लिम साथी देशवासी उतना बड़ा खतरा नहीं हैं जितने कि अंग्रेज। कांग्रेस की धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवाद में आस्था ने जमायत को यह विश्वास करने का और मजबूत आधार दिया। राजनैतिक व्यवस्था में मुस्लिम समुदाय को उसका वाजिब हिस्सा दिलवाने में जमायत की कोई रूचि नहीं थी। उसकी रूचि केवल मुस्लिम पर्सनल लॉ को संरक्षित रखने में थी। दूसरी ओर,जिन्ना और अन्य मुस्लिम राष्ट्रवादियों का लक्ष्य मुसलमानों को सत्ता में उनका वाजिब हक दिलवाना था और वे आधुनिक विचारों का स्वागत करते थे। जहां देवबंदी उलेमा मुसलमानों की एक विशिष्ट धार्मिक.सांस्कृतिक पहचान बनाना और उसकी रक्षा के लिए समुदाय को एक रखना चाहते थे,वहीं जिन्ना और मुस्लिम राष्ट्रवादी, मुसलमानों को एक अलग राजनैतिक समुदाय और अलग राष्ट्र मानते थे।
भारत के स्वतंत्र होने के बाद, जवाहरलाल नेहरू और मौलाना आजाद जैसे लोगों के सत्तासीन होने के कारण मुसलमान अपनी सुरक्षा को लेकर आश्वस्त थे। वैसे भी विभाजन के दौर में हुए दंगे शांत होने के बाद से,सुरक्षा, मुस्लिम नेताओं के लिए चिंता का कोई बड़ा मुद्दा नहीं थी। उस समय जोर इस बात पर था कि अल्पसंख्यक तभी सुरक्षित रह सकते हैं जब उन्हें बहुसंख्यकों का सद्भाव हासिल हो। जो मुसलमान भारत में रह गए थे उनमें मुख्यतः कारीगर, मजदूर, भूमिहीन किसान और पिछड़ी जातियां थीं और उनके लिए यह कल्पना करना भी मुश्किल था कि वे सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक क्षेत्रों में अपने वाजिब हिस्से की मांग उठा सकते हैं। जमायत और मुस्लिम राजनैतिक नेताओं ने मुसलमानों को उनकी धार्मिक.सांस्कृतिक पहचान के मुद्दे को लेकर कांग्रेस का साथ देने के लिए राजी कर लिया। इस मुद्दे के तीन भाग थे.पहला यह कि भारतीय राज्य,मुस्लिम पर्सनल लॉ में हस्तक्षेप नहीं करेगा, दूसरा, उर्दू भाषा को प्रोत्साहन देने के प्रयास किए जाएंगे और तीसरा, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के अल्पसंख्यक चरित्र से छेड़छाड़ नहीं की जाएगी। सन 1990 के दशक में इस सूची में एक और मुद्दा जुड़ गया और वह था बाबरी मस्जिद की रक्षा का.जिसे अंततः सन् 1992 में ढ़हा दिया गया।
मुस्लिम नेतृत्व, समुदाय की शैक्षणिक और आर्थिक उन्नति के लिए कुछ भी करने का इच्छुक नहीं था। वह केवल मुसलमानों की धार्मिक-सांस्कृतिक पहचान सुरक्षित रखना चाहता था और इसके लिए वह समुदाय के गौरवपूर्ण अतीत का गुणगान करता रहता था। इसमें शामिल था भारत को महान बनाने में मुस्लिम शासकों का योगदान, ताजमहल जैसी इमारतें और स्वाधीनता संग्राम में समुदाय की हिस्सेदारी। नेतृत्व के सामने एक चुनौती यह थी कि मुस्लिम समुदाय अत्यंत विविधतापूर्ण था। इसमें अनेक पंथ और बिरादरियां थीं। इसके अतिरिक्तए भाषाई, सांस्कृतिक व नस्लीय अंतर भी थे और कई अलग.अलग परंपराएं और रीतिरिवाज भी।
कांग्रेस के भीतर का मुस्लिम नेतृत्व इस तथ्य पर ध्यान नहीं दे रहा था कि मुसलमानों और गैर.मुसलमानों के बीच के सांस्कृतिक अंतर पर जोर देने और मुसलमानों की विशिष्ट सांस्कृतिक पहचान का निर्माण करने की कोशिश से, हिन्दू राष्ट्रवादी मजबूत हो रहे थे। उस समय महात्मा गांधी की हत्या में उनका हाथ होने और स्वाधीनता संग्राम में हिस्सेदारी न करने के कारण, हिन्दू राष्ट्रवादी समाज के हाशिए पर थे। वे शनैः.शनैः आमजनों के बीच यह प्रचार करने लगे कि मुसलमानों द्वारा अपनी विशिष्ट धार्मिक.सांस्कृतिक पहचान को मजबूती देने से अलगवावादी प्रवृत्ति बढ़ेगी। जबकि तथ्य यह है कि धार्मिक-सांस्कृतिक स्वतंत्रता के आश्वासन ने ही देवबंदी उलेमाओं को मिलेजुले भारतीय राष्ट्रवाद की ओर आकर्षित किया था और उन्हें विभाजन व मुस्लिम लीग के साम्प्रदायिक राष्ट्रवाद का विरोध करने के लिए प्रेरित किया था।
देवबंदी उलेमाओं का प्रयास यह था कि वे संस्कृति का इस्तेमाल एक धार्मिक समुदाय को राजनैतिक समुदाय के रूप में पुनर्परिभाषित करने के लिए करें और राजनैतिक व्यवस्था में अपना वाजिब हक मांगें। हिन्दू राष्ट्रवादियों ने मुसलमानों का दानवीकरण शुरू कर दिया। वे कहने लगे कि मुसलमानए मूलतः अलगाववादी हैं, वे पाकिस्तान के प्रति वफादार हैं और बहुपत्नी प्रथा का इस्तेमाल कर अपनी आबादी को इतना बढ़ा लेना चाहते हैं कि उनकी संख्या हिन्दुओं से अधिक हो जाए और वे भारत को इस्लामिक राज्य में बदल सकें। कांग्रेस इस बेजा प्रचार का मुकाबला करने की अनिच्छुक व इसमें असमर्थ थी। बल्कि कांग्रेस को लगता था कि अगर मुसलमान असुरक्षित महसूस करेंगे तो वे मजबूर होकर उसके साथ जुड़ेंगे। कांग्रेस ने मुसलमानों को शिक्षा, बैंक कर्जों, सार्वजनिक नियोजन, सरकारी ठेकों इत्यादि में बराबरी के अवसर दिलवाने के लिए कोई प्रयास नहीं किए और ना ही यह कोशिश की कि सरकारी कल्याणकारी योजनाओं के लाभ मुसलमानों तक पहुंचें। इस दिशा में पहली बार कुछ अनमने से प्रयास सन् 2006 में सच्चर समिति की रपट आने के बाद किए गए और इन प्रयासों का मुख्य लक्ष्य भी प्रचार पाना था। नौकरशाहों ने मुसलमानों के लिए बनाई गई विशेष कल्याणकारी योजनाओं को लागू करने में पर्याप्त दिलचस्पी नहीं दिखाई और मुसलमानों को बहुत कम वास्तविक लाभ मिला।
सन् 1961 के जबलपुर दंगों ने पहली बार मुसलमानों की कांग्रेस के प्रति आस्था को झकझोरा। नेहरू के हस्तक्षेप के बाद भी मुसलमानों के खिलाफ हिंसा जारी रही। उस मुस्लिम नेतृत्व, जो अपनी विशिष्ट धार्मिक, सांस्कृतिक पहचान बनाने की कोशिशों में लगा हुआ था, के लिए जबलपुर दंगे एक चेतावनी थे। परंतु उन्होंने उसे नजरअंदाज कर दिया। सन् 1952 के चुनाव में कांग्रेस के मुस्लिम उम्मीदवारों को,  बिहार, उत्तरप्रदेश, पश्चिम बंगाल और संपूर्ण भारत में मुस्लिम उम्मीदवारों को मिले मतों का क्रमश: 64, 72, 56 व 57 प्रतिशत हिस्सा प्राप्त हुआ। सन् 1957 के चुनाव में कांग्रेस के मुस्लिम उम्मीदवारों को इन्हीं राज्यों व संपूर्ण भारत में सभी मुस्लिम उम्मीदवारों को मिले मतों के क्रमश: 65, 58, 51 व 52 प्रतिशत मत प्राप्त हुए। सन् 1962 में यह प्रतिशत क्रमश: 52, 47, 52 व 52 रह गया। सन् 1967 में कांग्रेस को मिलने वाले मुसलमानों के मतों में भारी कमी आई और इन तीन राज्यों और संपूर्ण भारत में क्रमश: उसे केवल 39, 36, 47 और 40 प्रतिशत मत प्राप्त हुए। सन् 1960 के दशक के अंत में देश में कांग्रेस के विरूद्ध वातावरण था और इसका असर मुसलमानों पर भी पड़ा। जैसा कि आंकड़ों से स्पष्ट हैए खासी मुस्लिम आबादी वाले इन तीन राज्यों में मुसलमानों में कांग्रेस की पैठ तेजी से कम हुई।
मुसलमान बहुत तेजी से कांग्रेस से दूर खिसकने लगे क्योंकि पार्टी उन्हें सुरक्षा प्रदान करने में तो असफल रही ही थी, शासन व्यवस्था और आर्थिक संपन्नता में भी उन्हें उनका वाजिब हक नहीं दिलवा सकी थी। कांग्रेस का जोर केवल उनकी विशिष्ट धार्मिक.सांस्कृतिक पहचान को सुरक्षित रखने पर थाए जिसकी मांग पितृसत्तात्मक व्यवस्था में विश्वास रखने वाले देवबंदी उलेमा करते थे। धार्मिक.सांस्कृतिक पहचान को सुरक्षित रखने के बदलेए राजनैतिक समर्थन पाने की कोशिशों के उदाहरण थे सलमान रूशदी के उपन्यास 'सेटेनिक वर्सेस' पर रोक और शाहबानो मामले में उच्चतम न्यायालय के निर्णय को पलटने के लिए नए कानून का निर्माण आदि।
पिछड़े मुसलमान
जहां देववंदी उलेमाओं के लिए मुसलमानों की विशिष्ट धार्मिक.सांस्कृतिक पहचान का मुद्दा केवल मुस्लिम पर्सनल लॉ, उर्दू व अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के इर्दगिर्द घूमता था, वहीं पिछड़े मुसलमानों, जो कि कुल आबादी के 85 फीसदी से ज्यादा थे, की सांस्कृतिक पहचान की परिभाषा भिन्न थी। वे जातिगत ऊँचनीच और भेदभाव का सामना कर रहे थे। जहां इस्लाम उन्हें समान दर्जा और न्याय का वायदा करता था वहीं अशरफ मुसलमान.जो कि या तो ऊँची जातियों के हिंदुओं से धर्मपरिवर्तन कर मुसलमान बने थे या दावा करते थे कि उनकी रगों में बादशाहों का खून बह रहा है. पिछड़े मुसलमानों को अपने बराबर दर्जा देने के लिए तैयार नहीं थे। अजलफ (नीची जातियों से धर्मपरिवर्तन कर बने मुसलमान, जिन्हें पसमांदा भी कहा जाता है) सांस्कृतिक दृष्टि से स्वयं को हिंदू नीची जातियों के सदस्यों के अधिक नजदीक पाते थे। उन्हें इस्लाम और बिरादरी की संस्कृति, दोनों विरासत में प्राप्त हुए थे। पसमांदाओं को लामबंद करने के लिए सामाजिक न्याय और सामाजिक समावेश के मुद्दों का इस्तेमाल किया गया। पिछड़े मुसलमानों को उर्दू से कोई विशेष प्रेम नहीं था और ना ही उन्हें दूरदराज स्थित एक विश्वविद्यालय के अल्पसंख्यक चरित्र से कोई लेनादेना था, विशेषकर तब, जबकि उनके बच्चो के लिए पड़ोस के स्कूल में दाखिला पाना भी एक संघर्ष था। उन्हें वहाबी-देववंदी परिवार संहिता से भी कोई मतलब नहीं था। उनका जोर इस बात पर था कि उन्हें दो वक्त की रोटी मिल सके और उनके बच्चे पढ़ लिख सकें। दक्षिण भारतए विशेषकर तमिलनाडु और कर्नाटक व तेलगांना के ग्रामीण इलाकों में, मुसलमान अपनी द्रविड़ पहचान और सामाजिक न्याय के आंदोलनों से अधिक जुड़े हुए थे।
सुरक्षा का मुद्दा
बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद मुसलमान मतदाता कांग्रेस से दूर होते गए क्योंकि कांग्रेस उनके धार्मिक.सांस्कृतिक प्रतीकों की रक्षा करने में असफल रही थी। सन् 1990 के दशक में सुरक्षा का मुद्दा,धार्मिक-सांस्कृतिक पहचान के मुद्दे से कहीं अधिक महत्वपूर्ण बन गया। उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बिहार में राष्ट्रीय जनता दल मुसलमानों को यह आश्वासन देकर अपनी ओर खींचने में सफल रहे कि वे उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करेंगे। यहां यह महत्वपूर्ण है कि मुस्लिम राजनैतिक नेतृत्व ने उच्चतम न्यायालय के उन कई फैसलों पर कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं कि जिनके द्वारा मुसलमानों के धार्मिक.सांस्कृतिक चरित्र पर अतिक्रमण किया जा रहा था। उदाहरणार्थ,सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय का कोई विरोध नहीं हुआ कि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की स्थापना राज्य द्वारा की गई है और इसलिए उसे अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थान नहीं माना जा सकता। इसी तरह,सलमान रूशदी और तस्लीमा नसरीन को वीजा दिए जाने का विरोध टीवी स्टूडियों में तो हुआ परंतु सड़कों पर नहीं। मुस्लिम महिला (तलाक अधिकार संरक्षण अधिनियम 1986) जिसे संसद ने शाहबानो प्रकरण में निर्णय को पलटने के लिए बनाया था, की उच्चतम न्यायालय ने इस तरह व्याख्या की कि तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं का अपने पूर्व पतियों से मुआवजा पाने का अधिकार और मजबूत हो गया। इस निर्णय का भी कोई विरोध नहीं हुआ। ऐसे अनेक धार्मिक-सांस्कृतिक मुद्दे हैं, जिनमें राज्य या न्यायालयों द्वारा हस्तक्षेप किया गया परंतु उन देववंदी उलेमाओं व अन्यों ने उनका कोई विरोध नहीं कियाए जो ये दावा करते थे कि वे मुसलमानों की विशिष्ट धार्मिक-सांस्कृतिक पहचान की रक्षा करेंगे।
अपनों के बीच बेगाने
लगभग 2 वर्ष पहले मुझे पटना में पिछड़े वर्ग के मुसलमानों के एक सम्मेलन को संबोधित करने के लिए आमंत्रित किया गया था। इस सम्मेलन का आयोजन ‘‘तहरीक-ए-पसमांदा मुस्लिम समाज‘‘ ने किया था। सम्मेलन में लगभग 400 लोग उपस्थित थे। हर वक्ता को केवल तीन-चार मिनट बोलने के लिए कहा गया और संयुक्त राष्ट्र संघ के एक अधिकारी को छोड़कर, अन्य सभी के मामले में इस नियम का पालन हुआ। सम्मेलन 11 बजे सुबह शुरू हुआ और चाय या भोजन अवकाश  के बिना 5 बजे तक चलता रहा। इस प्रकार, लगभग 150 लोगों ने सम्मेलन में भाषण दिया, जिसमें से केवल पांच हिन्दू दलित थे और एक दलितों के बीच काम करने वाला ईसाई सामाजिक कार्यकर्ता था। वक्ताओं ने मुस्लिम नेतृत्व को कोसने के लिए जिस भाषा का इस्तेमाल किया, उसे मैं यहां दोहरा नहीं सकता। उन्होंने कहा कि उनके नेताओं को उनकी बदहाली की कोई परवाह नहीं है। उन्होंने यह आरोप भी लगाया कि सभी पार्टियों के मुस्लिम नेता, समुदाय को केवल भावनात्मक मुद्दों पर भड़काने का काम करते आ रहे हैं। इनमें शामिल हैं बाबरी मस्जिद, मुस्लिम पर्सनल लाॅ, शाहबानो व सेटेनिक वर्सेस पर प्रतिबंध जैसे मसले। उनका कहना था कि मुस्लिम पिछड़े वर्गों की हालत, हिन्दू दलितों से भी बदतर है। उन्हें न केवल समाज अछूत मानता है वरन् उनके समुदाय के सदस्य भी उनके साथ कोई संबंध नहीं रखना चाहते। वक्ताओं में हलालखोर समाज के प्रतिनिधि शामिल थे। इस समाज के सदस्य, सिर पर मैला ढोने का काम करते हैं।
मुस्लिम अशरफ, अपवित्रता और पवित्रता की अवधारणाओं में उतना ही विश्वास करते हैं जितना कि हिन्दू उच्च जाति के लोग। हलालखोरों को भी मस्जिदों में प्रवेश करने से हतोत्साहित किया जाता है और अगर इस समुदाय का कोई सदस्य, परिणामों की परवाह किए बगैर, मस्जिद में घुस भी जाता है तो उससे यह अपेक्षा की जाती है कि वह नमाजियों की सब से आखिर की पंक्ति में खड़ा हो। पिछड़े मुसलमानों की हालत, हिन्दू दलितों से भी खराब है क्योंकि हिन्दू दलितों को कम से कम अनुसूचित जाति के बतौर, संवैधानिक और कानूनी लाभ प्राप्त हैं जबकि सन् 1950 के राष्ट्रपति के आदेष के अनुसार, किसी गैर-हिन्दू, गैर-सिक्ख या गैर-बौद्ध को अनुसूचित जाति के तौर पर अधिसूचित करने पर प्रतिबंध है। इस तरह, वे शैक्षणिक संस्थाओं, सरकारी नौकरियों और संसद व विधानसभाओं में आरक्षण के लाभ से वंचित हैं। इसी तरह, उन्हें अनुसूचित जाति, जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम की सुरक्षा भी प्राप्त नहीं है। एक वक्ता, जो सारी मुसीबतों से जूझकर शिक्षा प्राप्त करने में सफल हो गया था, को तब भी अशरफ समुदाय में सम्मान प्राप्त नहीं था। केवल उसकी हलालखोर बिरादरी के सदस्य उस पर गर्व महसूस करते थे। एक हिन्दू नाम का उपयोग कर वह सरकारी नौकरी पाने में सफल भी हो गया था। इस्लाम में अपनी आस्था को उसे अपने दिल के एक कोने में छुपाकर रखना पड़ता था और उसके परिवार का सार्वजनिक और व्यक्तिगत जीवन अलग-अलग था। सम्मेलन में दलित हिन्दू वक्ताओं ने दलित मुसलमानों की हालत पर चिंता और दुःख व्यक्त किया और यह मांग की कि गैर-हिन्दू, गैर-सिक्ख और गैर-बौद्ध दलितों को भी अनुसूचित जाति में शामिल किया जाना चाहिए। यहां यह महत्वपूर्ण है कि अन्य समुदायों को अनुसूचित जाति में शामिल करने से आरक्षण के लाभ और बंट जायेंगे परंतु फिर भी हिन्दू दलित, अपने मुसलमान साथियों की खातिर यह त्याग करने को तैयार थे।
इस सम्मेलन से एक बार फिर यह स्पष्ट हुआ कि मुस्लिम ‘समुदाय’, दरअसल, समुदाय है ही नहीं। इसमें कई अलग-अलग बिरादरियां हैं जैसे हलालखोर, खटीक, तेली, तंबोली, जुलाहा, बागवान, पठान, सैय्यद, शेख इत्यादि। इन मुस्लिम बिरादरियों को मुख्यतः तीन श्रेणियों में बांटा जा सकता है-अशरफ (श्रेष्ठी वर्ग, हिन्दू उच्च जातियों के समकक्ष), अजलफ (ओबीसी के समकक्ष कारीगर वर्ग) व अरज़ल (दलित हिन्दुओं के समकक्ष वे मुस्लिम बिरादरियां जो ‘अपवित्र काम’ करती हैं)। अशरफ, अजलफ और अरज़ल शब्द किसी भारतीय भाषा के शब्द नहीं हैं। ये अरबी के शब्द हैं और इनका इस्तेमाल सल्तनत काल से होता आ रहा है। तब भी इस्लाम के मानने वालों में इतना भेदभाव था कि पिछड़े वर्गों से मुसलमान बनने वालों पर शरियत कानून लागू नहीं होते थे। मदरसे केवल अशरफ और अजलफ मुसलमानों के लिए थे और अरजल बिरादरियों के बच्चों को केवल सूफी संतों और उनकी दरगाहों का सहारा था-वे दरगाहें जहां सबका स्वागत था-हिन्दुओं और मुसलमानों का, दलितों और उच्च जातियों का, महिलाओं और पुरूषों का। जब इस्लाम और ईसाई धर्म, दक्षिण एशिया पहुंचे तब उनका सामना भारत में सदियों से स्थापित जाति व्यवस्था से हुआ। जहां तक ऊँची जातियों की बात है उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता था कि शूद्र कौन सा धर्म, परंपराएं या कर्मकांड अपनाते हैं। उन्होंने वैसे भी शूद्रों को अपने समुदाय और समाज से बाहर कर रखा था। अतः उन्हें शूद्रों के इस्लाम या ईसाई धर्म अपनाने से कोई फर्क नहीं पड़ता था। राज्य का मूल चरित्र सामंती था और वह हिन्दू और मुस्लिम श्रेष्ठी वर्ग के हितों का रक्षक था। वह ऊँचनीच और जन्म-आधारित भेदभाव को बनाए रखना चाहता था। आज भी मुस्लिम बिरादरियों की वफादारी, उनकी बिरादरी से जुड़े संगठनों (कुछ-कुछ जाति पंचायतों की तरह) के प्रति होती है। पारिवारिक विवादों के मामले में दारूलउलूम या मुस्लिम विधिशास्त्रीय संस्थाओं की बजाए बिरादरी से जुड़ी संस्थाओं से संपर्क किया जाता है। शैक्षणिक संस्थाएं और वजीफे आदि देने वाले संगठन भी मुख्यतः अपनी-अपनी बिरादरी के सदस्यों के लिए ही होते हैं। बिरादरियों में आपस में ही विवाह होते हैं और बिरादरी से बाहर विवाह बहुत ही कम मामलों में स्वीकार किये जाते हैं। विभिन्न बिरादरियों के बीच रोटी का व्यवहार तो शायद होता भी हो परंतु बेटी का नहीं होता।
पहली से चौदहवीं लोकसभा तक केवल पांच पिछड़े मुसलमान सदन के सदस्य बन सके।  यही हालत राज्यसभा और विधानसभाओं की भी है। यद्यपि वर्तमान राज्यसभा में कई मुस्लिम सदस्य हैं परंतु उनमें से एक भी पिछड़े वर्ग का नहीं है। राजनैतिक पार्टियों में भी पिछड़े मुसलमानों का  प्रतिनिधित्व न के बराबर है जबकि पिछड़े मुसलमान, कुल मुस्लिम आबादी के 90 प्रतिशत से भी अधिक हैं। इसके बावजूद, समुदाय का नेतृत्व अशरफों के हाथों में हैं जो पूरे समुदाय का प्रतिनिधि होने का दावा करते हैं और समुदाय के सदस्यों को सेटेनिक वर्सेस, डच कार्टून, बाबरी मस्जिद और शाहबानो जैसे पहचान से जुड़े मुद्दों में उलझाये रखते हैं। इसके विपरीत, पिछड़े मुसलमानों के अधिवेशन में एक भी वक्ता ने इन मुद्दों की चर्चा नहीं की। वे बेशक इस्लाम से प्यार करते हैं परंतु उनके लिए उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति, सामाजिक न्याय, शिक्षा इत्यादि सबसे महत्वपूर्ण हैं। इस्लाम उनके लिए एक निजी मामला है जिसके नियमों का पालन वे अपने घर की चहारदीवारी में करते हैं। इस्लाम उनके लिए आस्था का प्रश्न  है, राजनैतिक हितों को बढ़ावा देने के लिए भीड़ जुटाने का हथियार नहीं। वे अशरफ मुसलमानों की तुलना में स्वयं को हिन्दू दलितों के अधिक करीब पाते हैं और वे उन लोगों से प्रभावित हैं, जो सामाजिक न्याय की बात करते हैं। उनके लिए उनकी प्राथमिक पहचान ‘दलित’ है, ‘मुसलमान’ नहीं। अन्य मुसलमानों और स्वयं में वे जो चीज एक सी पाते हैं वह है आराधना करने का तरीका और धर्म। इसके अलावा कुछ भी नहीं। अन्य मामलों में वे मुसलमानों की बजाए दलितों के अधिक नजदीक हैं। हाल के आंध्रप्रदेश उच्च न्यायालय के एक निर्णय पर हो रही बहस को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए। क्या मुस्लिम ‘समुदाय’ शैक्षणिक व समााजिक दृष्टि से पिछड़ा हुआ वर्ग है? मेरे विचार में, भारत के मुसलमान न तो कोई समुदाय हैं और न कोई वर्ग। काका कालेलकर आयोग और उसके बाद मंडल आयोग ने मुस्लिम पिछड़े वर्गों को सामाजिक व शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों की सूची में शामिल किया था।
जरूरी नहीं सरकारी आरक्षण
हमारा संविधान धर्मनिरपेक्ष है और पूरे मुस्लिम समुदाय को आरक्षण देना, धर्म के आधार पर भेदभाव करना होगा। मुसलमानों को आरक्षण देने में कानूनी बाधाएं तो हैं ही परंतु मेरी यह राय है कि ऐसा करना वांछनीय भी नहीं है क्योंकि इससे मुख्यतः वे अशरफ बिरादरियां लाभान्वित होंगी जो पहले से ही सामाजिक-आर्थिक-शैक्षणिक दृष्टि से आगे हैं और जिन्हें आरक्षण की कतई आवश्कता  नहीं है। बोहरा, मेमन और खोजा समुदाय में एक बड़ा शिक्षित मध्यम वर्ग है। ये तीनों समुदाय  गुजरात के हैं और ब्रिटिश औपनिवेशिक काल में बंबई में बंदरगाह बनने के बाद, पश्चिमी भारत में हुए विकास से लाभांवित हुए हैं। इन समुदायों की युवा पीढ़ी आरक्षण के बिना भी उच्च शिक्षा प्राप्त कर रही है। शिक्षा प्राप्त करने के बाद यद्यपि उनमें से कुछ डाक्टर, इंजीनियर, वकील, चार्टर्ड अकाउंटेंट आदि बतौर काम करते हैं परंतु कुछ अपने पारिवारिक व्यवसाय को चलाना ही बेहतर समझते हैं। मस्जिदों और मदरसों के अलावा, इस समुदाय के सदस्यों ने देश भर में कई शैक्षणिक संस्थानों, अस्पतालों व अन्य सार्वजनिक संस्थाओं की स्थापना भी की है। भारत के सभी समुदायों में मैट्रिक की परीक्षा उत्तीण करने वालों का प्रतिशत 26 है। इसके मुकाबले, 17 प्रतिशत मुसलमान मैट्रिक्यूलेट हैं। परंतु इनमें भी अशरफों, जिनमें बोहरा, खोजा और मेमन शामिल हैं, की संख्या सबसे ज्यादा है। इसी तरह, जो 3.6 प्रतिशत मुसलमान स्नातक परीक्षा पास हैं और 0.4 प्रतिशत, जिन्होंने तकनीकी शिक्षा प्राप्त की है, उनमें भी अशरफों की बहुलता है यद्यपि वे कुल मुस्लिम आबादी का केवल 10 प्रतिशत हैं। ऐसी स्थिति में अगर रकार मुसलमानों की भलाई के लिए कोई सकारात्मक कदम उठाती है तो उसके सभी लाभों पर अशरफ कब्जा कर लेंगे। इसका कारण यह है कि वे पहले से ही शिक्षित हैं और आरक्षण का लाभ उठाना उनके लिए कहीं आसान होगा। इसके विपरीत, पहले से ही पिछड़े अजलफ और अरजल पिछड़े ही बने रहेंगे। बेहतर यह होगा कि सभी मुसलमानों को आरक्षण देने की बजाए, विशिष्ट मुस्लिम समूहो  या बिरादरियों को पिछड़े वर्गों की सूची में शामिल किया जाए ताकि लाभ उन तक पहुंचे जिन्हें उसकी जरूरत है। ऐसा करके हम इस सच्चाई को भी स्वीकार करेंगे कि मुस्लिम समुदाय एकसार नहीं है।
सत्ता में आने के बाद, आंध्रप्रदेश की वाय.एस. राजशे खर रेड्डी सरकार ने कानून बनाकर मुसलमानों को  5 प्रतिशात आरक्षण देने का निर्णय लिया। इस नये कानून को आंध्रप्रदेशा उच्च न्यायालय में चुनौती दी गई और न्यायालय ने उसे असंवैधानिक व समानता के मूल अधिकार का उल्लंघन बताते हुए रद्द कर दिया। अपने निर्णय में उच्च न्यायालय ने कहा कि आरक्षण का लाभ केवल सामाजिक और शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों को दिया जा सकता है, किसी धार्मिक समुदाय को नहीं। इसके अलावा, न्यायालय ने यह भी कहा कि आंध्रप्रदेश सरकार के पास ऐसे कोई आंकड़े या तथ्य उपलब्ध नहीं हैं जिनके आधार पर वह इस निष्कर्ष पर पहुंच सके कि पूरा मुस्लिम समुदाय पिछड़ा हुआ है। उच्चतम न्यायालय ने आंध्रप्रदेश उच्च न्यायालय के निर्णय को सही ठहराया। इसके बाद, आंध्रप्रदेश सरकार ने मुसलमानों के पिछड़े वर्गों के लिए 4 प्रतिशत आरक्षण की घोषणा की। इस बार ऐसा करने के पहले उसने मुसलमानों के उन वर्गों के सामाजिक व शैक्षणिक पिछड़ेपन के संबंध में आंकड़े इकट्ठे किये। सरकार ने आंध्रप्रदेष पिछड़ा वर्ग आयोग से यह कहा कि वह मुस्लिम समुदाय की सामाजिक, शैक्षणिक व आर्थिक स्थिति का अध्ययन करे। इसके बाद सरकार ने पिछड़े वर्गों की सूची में एक नया ‘ई‘ समूह शामिल किया, जिसमें ‘मुसलमानों के सामाजिक व शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े समुदाय‘ रखे गए। परंतु आंध्रप्रदेश  उच्च न्यायालय ने इस कानून को भी रद्द कर दिया। न्यायालय ने कहा कि निर्णय लेने की प्रक्रिया में सभी प्रासंगिक कारकों का संज्ञान नहीं लिया गया है और कई अप्रासंगिक कारकों का संज्ञान लिया गया है। उच्च न्यायालय ने कहा कि मुस्लिम पिछड़ों के लिए आरक्षण इसलिए भी अवैध है क्योंकि इससे उच्चतम न्यायालय द्वारा कुल आरक्षण पर लगाई गई 50 प्रतिशत की सीमा का उल्लंघन होता है।
अब समय आ गया है कि हम पिछड़ों को समाज के अन्य वर्गों के समकक्ष लाने के लिए आरक्षण को एकमात्र सकारात्मक कदम मानना छोड़ें। राजनेताओं के लिए आरक्षण देना सबसे आसान होता है क्योंकि इसके लिए उन्हें कोई अतिरिक्त संसाधन नहीं जुटाने होते। केवल एक कानून बनाकर किसी भी वर्ग को आरक्षण दे दो और उसके वोट बटोरो। मुस्लिम पिछड़ों का एक छोटा सा हिस्सा अपनी मेहनत से और निर्यात में हुई वृद्धि के कारण आर्थिक रूप से संपन्न बन गया है। इनमें शामिल हैं वाराणसी के साड़ी बुनकर, मुरादाबाद के पीतल कारीगर और अलीगढ़ के ताला उद्योग व मेरठ के कैंची उद्योग के कुछ व्यवसायी। आरक्षण की बजाए मुस्लिम समुदाय के पिछड़े तबकों को आगे बढ़ने के मौके उपलब्ध कराने के लिए बेहतर यह होगा कि सरकार असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों के हितों की सुरक्षा के लिए कड़े कानूनी प्रावधान करे, कारीगरों को कौशल विकास के मौके उपलब्ध कराए और उन्हें अपना व्यवसाय स्थापित करने के लिए आसान शर्तों पर कर्ज दिलवाने की व्यवस्था करे। परंतु इसके लिए यह जरूरी होगा कि संसाधनों का इस्तेमाल कुबेरपतियों के उद्योगों को अनुदान देने की बजाए गरीबों की भलाई के लिए किया जाए। ऐसा सिर्फ एक दूरदृष्टा व उदार नेता ही कर सकता है-वे बौने नहीं जो इस समय हमारे राजनैतिक परिदृष्य पर छाए हुए हैं।
Source: http://visfot.com/index.php/current-affairs/11572-muslim-in-india-irfaan.html

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