Thursday, March 20, 2014

Arab- Israel Talks: Some other Reasons of Failure अरब- इज़रायल वार्ताः नाकामी के कुछ दूसरे कारण





बासिल हेजाज़ी, न्यु एज इस्लाम
19 मार्च, 2014
1948 से लेकर अब तक अरब इज़रायल वार्ता लगातार विफल होती चली आ रही है, इसकी वजह राजनीतिक दृष्टिकोण और हितों का अंतर ही नहीं बल्कि भाषा, संस्कृति और मानसिकता का भी अंतर है।
सबसे पहले तो स्वाभाविक और ऐतिहासिक रूप से अरबी बातचीत ऐसे करता है जैसे माल खरीद रहा हो। मिसाल के तौर पर व्यापारी कहता है कि ये क़ालीन हज़ार दीनार का है और आप कहते हैं कि नहीं मैं सिर्फ पांच सौ दूँगा। इस तरह सौदा हो जाता है और व्यापारी के साथ आपके सम्बंध भी बन जाते हैं। अगर सौदा न हो तो खाली समय बड़ी अच्छी तरह से कट जाता है। अधिकतर अरबों के यहाँ ये समय बिताने का एक अच्छा शौक है लेकिन इज़रायल को ऐसे तरीके से नफ़रत है और वो इस तरह की सौदेबाज़ी को दुश्मनी के माहौल में अस्तित्व की लड़ाई समझता है।
दूसरे ये कि इज़रायली "इंशा अल्लाह" और "मुश मुश्किलः" (यानी कोई समस्या नहीं) की मानसिकता को नहीं समझता जो अरबों की ज़बान पर ऐसे सवार रहती है जैसे खाने में नमक ज़रूरी होता है। ये अरब की बातचीत की ज़बान का एक ज़रूरी हिस्सा होता है। दोनों तरफ से एक दूसरे से अलग सांस्कृतिक और भाषा शैली का इस्तेमाल बातचीत की विफलता का एक प्रमुख कारण है।
तीसरे ये कि अरब दुनिया को अरबी भाषा की दूरबीन से देखते हैं क्योंकि ये क़ुरान की ज़बान है। इसलिए सोचने का ढंग और कुरानी आयत से तर्क और बातचीत की शुरुआत से पहले बिस्मिल्लाह का पढ़ना और बातचीत के दौरान "इंशा अल्लाह" और "माशा अल्लाह" बोलना खासकर जब किसी अजनबी से बातचीत की बैठक चल रही हो, बहुत सारा वक्त बर्बाद करता है और अनुवादक को अनुवाद की भूल भुलैय्यों में उलझा देता है जिसके नतीजे में मूल विषय पर ध्यान केंद्रित रखना मुश्किल हो जाता है। दूसरे शब्दों में इज़रायली को ऐसे माहौल में बातचीत करने में कठिनाई होती है जिस पर बातचीत की शुरुआत से लेकर अंत तक इस्लामी आस्था छाई हुई हो और हर अगला वा

क्य इस्लामी आस्था का बेजोड़ नमुना हो।

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