Tuesday, February 11, 2014

Interfaith Dialogue— Only Way to Fight Extremism अंतरधार्मिक संवाद- चरमपंथ से मुक़ाबला करने का एकमात्र तरीका





नूर फख़री एज़ी
16 जनवरी 2014
एक दूसरे की निंदा करना और उन्हें तुच्छ (छोटा) समझते हुए सभी धर्म के चरमपंथियों के बीच जो बात एक समान है वो ये है कि वो सभी लोग एक सच्चे 'रास्ते' पर ईमान (विश्वास) रखते हैं। उनके इस दावे के बावजूद कि ''वो पाप से नफरत करते है पापियों से नहीं'' उनका ये रवैय्या उनसे अलग विश्वास और मूल्यों के मानने वाले लोगों के साथ सम्बंधों को प्रभावित करने की संभावना रखता है और ये किसी भी समाज में चरमपंथ का बीज बोने में मददगार हो सकता है जो कि आगे चलकर आतंकवाद को जन्म दे सकता है।
सऊदी समाज में चरमपंथ को एक गंभीर मुद्दे के रूप में तब देखा जाने लगा जब 9/11 की त्रासदी के बाद सऊदी अरब की धरती पर और दूसरे देशों में आतंवादी हमले होने लगे। जिसके नतीजे में सऊदी सरकार ने चरमपंथ को खत्म करने और इस्लाम को समझने में उदारता को बढ़ावा देने के लिए कई कदमों पर विचार किया, जिनमें 2004 में नेशनल सोसायटी फॉर ह्यूमन राइट्स की स्थापना भी शामिल है, जो उदार इस्लामी मूल्यों को बढ़ावा देने के लिए जागरूकता बढ़ाने और धार्मिक शिक्षा में सुधार और साथ ही साथ शिक्षको और इमामों को प्रशिक्षण देने का एक अभियान है। इसके अलावा खादिमे हरमैन शरीफैन किंग अब्दुल्लाह ने अंतरधार्मिक और अंतरसांस्कृतिक संवाद को बढ़ावा देने के लिए 2008 में एक और कदम उठाया, जिसके बाद 2011 में वियाना में दि किंग अब्दुल्लाह बिन अब्दुल अज़ीज़ इंटरनेशनल सेंटर फॉर इंटर-रिलिजियस एण्ड इंटर-कलचरल डायलॉग (KAICIID)'' की स्थापना हुई।
हालांकि इन कदमों से सऊदी लोगों के नज़रिये में बदलाव आ सकता है, लेकिन फिर भी हमारे समाज में पाये जाने वाले चरमपंथी विचारों को जड़ से ऊखाड़ फेंकने के लिए और भी बहुत कुछ किया जाना बाकी है। मिसाल के तौर पर कुछ लोगों का अब भी यही मानना है कि गैर-मुस्लिमों को उनके त्योहारों और विशेष आयोजनों पर शुभकामनाएं नहीं पेश की जानी चाहिए और यहाँ तक कि अगर उन्हें ज़रूरत हो तब भी उन्हें दान भी नहीं देना चाहिए, इसलिए

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