Monday, December 14, 2015

Hanged For Trying To Bridge the Gap between Islam and Hinduism इस्लाम और हिंदू मत के बीच की खाई को भरने के प्रयत्न में फाँसी पर चढ़ने वाला: दारा शिकोह

Hanged For Trying To Bridge the Gap between Islam and Hinduism इस्लाम और हिंदू मत के बीच की खाई को भरने के प्रयत्न में फाँसी पर चढ़ने वाला: दारा शिकोह



मिनी कृष्णन
31 अगस्त 2008
दाराशिकोह का व्यक्तित्व, जिनकी वर्षगाँठ ३० अगस्त को मनाई जाती है, केवल एक सूफ़ी, एक बुध्जीवि और एक अनुवादक तक ही सीमित नहीं थे, वह एक संपादक और पब्लिशार भी थे।
हर वह हिन्दुस्तानी जिसने कभी टेक्स्ट का अनुवाद अँग्रेज़ी में किया हो वह इस मुगल शहज़ादे का कर्ज़दार है, जिसे दिल्ली में हुमायूँ के मक़बरे के अहाते में दफ़न किया गया है. उसकी वर्षगाँठ ३० अगस्त को मनाई जाती है, जिसे हम सभी को राष्ट्र स्तर पर मनानां  चाहिए. ३५० साल पहले मुगल तख्त के लिए संघर्ष में शाहजहाँ के सब से बड़े बेटे शहज़ादा दारा शिकोह को पराजय मिली थी. उसके बाद उसे दिल्ली लाया गया जहाँ उसे ज़िल्लत व रुसवाई के साथ एक गंदे हाथी के साथ बाँध कर पूरे शहर में घुमाया गाया.
महत्वपूर्ण आरोप
आज हमारे लिए जो बात ख़ास है वह यह नहीं है की यह बादशाहत के लिए लड़ी गई एक जंग थी, जो की अपने आप में कोई मामूली बात नहीं है, बल्कि वह इल्ज़ाम है जो औरंगज़ेब ने अपने जायेज़ वारिस के खिलाफ लगाया था। दारा शिकोह ने इस बात को  अपनी किताब ' मजमा उल बहरैन' में प्रकाशित किया था, जिसमें दारा शिकोह ने खुल कर हिंदू मत के सत्यता को स्वीकार किया था। अपने दादा की तरह दारा शिकोह ने भी खुल कर हिंदू मत और इस्लाम के बीच की खाई को भरने का प्रयत्न किया था। शहंशाह अकबर का इस बात पर पूरा यक़ीन था की उन के मुगल अमीरों को अपने हिंदू अवाम को समझने की ज़रूरत है। उसने रामायण,महाभारत और भागवत गीता को फ़ारसी में अनुवाद करने के लिए एक अनुवाद ब्यूरो की स्थापना की थी। शहज़ादा दारा शिकोह उस से बहुत आगे चला गाया था।
दारा शिकोह, जिनके नाम का मतलब "दारा का जलाल" है, १६१५ में शाहजहाँ और मुमताज़ महल के घर में पैदा हुए थे। वह अपने पिता के उत्तराधिकारी और उनके चहीते बेटे थे. इल्म में उनकी ज़ाहरी विशेषताओं और सूफीवाद में उनकी गहरी दिलचस्पी से, जिसकी उन्होंने लगातार खोज की, यह बात सामने आई के वह कोई आम इंसान नहीं थे. १६४० में उनका परिचय लाहौर के एक मशहूर क़ादरी सूफ़ी हज़रत मियाँ मीर से हुआ, जिन्होंने जहाँगीर और शाहजहाँ दोनों को अपनी तमाम प्रजा के साथ भलाई करने की शिक्षा दी थी। उसी साल दारा शिकोह ने अपनी पहली किताब, 'सकीनतुल औलिया' प्रकाशित किया जो के मुस्लिम सूफ़िया और उराफ़ा की जीवनी का एक संग्रह थी। उनकी विचारों में उस वक़्त एक बड़ा परिवर्तन आया जब उनकी मुलाक़ात एक हिंदू रहस्यवादी बाबा लाल बैरागी से हुई, जिन के साथ हुए वार्तालाप को उन्होंने अपनी एक छोटी सी किताब 'बाबा लाल व दारा शिकोह' में उल्लेखित किया।
उन्होंने हिंदुओं, सिखों और ईसाइयों को अपना दोस्त बनाया. उनके रूहानी सफ़र के परिणामस्वरूप उन की ज़ुबान बहुआयामी हो गयी। इस्लाम और हिंदू मत के बीच एक साझा सूफ़ियाना भाषा खोजने की कोशिश में, दारा शिकोह ने संस्कृत से उपनिषदों का अनुवाद फ़ारसी में करने के लिए एक अनुवादक कमिशन का गठन किया और यहाँ तक की उन्होंने कुछ अनुवादों में स्वयं भाग लिया।  संयुक्त रूप से किए गये शिक्षा के कार्यों में उनका विश्वास था, यध्पि यह बात आश्चर्यचकित कर देने वाली है. दारा शिकोह के प्रोत्साहन पर हिंदू और मुसलमान दोनो मज़हब के शिक्षित लोगों ने मिलजुल कर इस काम तो पूरा किया। उनके अनुवाद को 'सिर्रे अकबर' यानी 'बड़ा राज़' कहा जाता है और अपने परिचय में उन्होंने बड़ी बेबाकी के साथ इस बात का उल्लेख किया है की क़ुरान मजीद में जिस किताब को 'किताबुल मक्नुन' यानी 'ख़ुफ़िया किताब' के नाम से याद किया गया है, वह उपनिषद् ही हैं। अगर उनके भाई को उनके खिलाफ कोई सुबूत की ज़रूरत थी तो बड़ी आसानी के साथ यह कहा जा सकता है की स्वयं दारा शिकोह ने औरंगज़ेब को काफ़ी सामग्री उपलब्ध करवाया है।
गौरवपूर्ण पुस्तक
दारा शिकोह की सब से मशहूर और गौरवपूर्ण पुस्तक 'मजमा उल बाहरीन' का मक़सद सूफीवाद और हिंदू एकेश्वरवाद के बीच एक संयुक्त संबंध तलाश करना था।  इस किताब की प्रकाशन ने उसके भाग्य का फ़ैसला कर दिया, और औरंगज़ेब ने दारा पर क़ाबू पाने के लिए मज़हबी संगठनों के फैलाव और राजनीतिक दलो का प्रयोग किया. उसने दारा के विरोध में एक मुक़दमा चलाया की वह शासन करने योग्य नहीं है. जून १६५९ में संस्कृत में पुस्तकों का अनुवाद करने के लिए, औरंगज़ेब ने दारा को मुर्तद और वाजीबुल क़त्ल ठहराया। दारा पहले ही जंग में हार कर औरंगज़ेब का कैदी बन चुका था। आख़िर में दारा के क़ातिल जब उसके पास आए तो वह अपने और अपने नवजवान बेटे के लिए खाना बना रहा था. बर्खास्त शहज़ादे ने क़ातिलों के तलवार के मुक़ाबले में छुरी का इस्तेमाल करते हुए एक बादशाह की तरह लड़ाई की. जर्मन और अँग्रेज़ी में बाइबल का अनुवाद करने वालों को जिस तरह विद्धवंसक विरोधों का सामना करना पड़ा था उसी तरह  उंपनिषदों के पहले अनुवादक को भी ऐसे ही विरोध का सामना करना पड़ा. उसे अंतिम संस्कार के बिना ही दफ़न कर दिया गया था, सर के बिना उसके शरीर को किसी गढ्ढे में फेंक दिया गया।
दारा शिकोह के क़त्ल के १४० साल के बाद उपनिषदों के अनुवाद को, जिसे यूँ ही फेंक दिया गया था, एक लातीनी ने यूनानी और फ़ारसी के एक संग्रह में अनुवाद करके प्रकाशित किया (अनक़ुएतिल्ल दूपेरोन1801) पर फ्रांसीसी मुसाफिर (स्षोपन्षॉयार) की नज़र गई थी, जिन्होंने ९ सालों के बाद इस को प्रकाशित किया था और इस में लिखा था, "उपनिषदों से ज़्यादा लाभकारी इस पूरी दुनिया में और कोई भी किताब न्हीं हैं. यह मेरी ज़िंदगी का सुकून है और मेरी मौत तक यह मेरे दिल का सुकून रहे गी।" कई सदियों तक गुमनाम रहने वाली एक आधुनिक और उच्च कोटि की ज़ुबान में अदब के इस उच्चताम ख़ज़ाने की अचानक खोज ने यूरोप की पुस्तकालयों में एक हलचल पैदा कर दी, और वहाँ के विद्वान और विचारकों ने हिन्दुस्तान को इसी नज़र से देखना शुरू कर दिया।
दो पूरी तरह से विरोधी परंपराओं वाले समाज के बीच मेलजोल पैदा करने वाला इस मुगल शहज़ादे के दृष्टिकोण और सिद्धांत थे, जिन्होंने पश्चिमी दुनिया में हिन्दुस्तानी विचारों और सिद्धांतों को परिचित करवा दिया. दारा की यह भाषाई जंग ही उसके बर्बादी का कारण बनी. लेकिन उसका नतीजा यह हुआ की उस के अनुवाद ने विभिन्न सभ्यताओं के बीच सांस्कृतिक संबंधों के रास्ते खोल दिए। एक उच्च कोटि के इतिहासकार सत्य नाथ अय्यर लिखते हैं: उन्हें सच्चाई के उन महान शोधकों में गिना जाना चाहिए, जो आधुनिक पीढ़ी के विचारों को अपनी ओर आकर्षित कर सकते हैं।"
स्रोत: हिंदू, नई दिल्ली

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